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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
हुए । उनके पास वीरसेनगुरु ने सकल सिद्धान्त का अध्ययन किया तथा षट्खण्डागम पर ७२००० श्लोकप्रमाण प्राकृत - संस्कृतमिश्रित धवला टीका लिखी। इसके बाद कषायप्राभृत की चार विभक्तियों पर २०००० श्लोकप्रमाण जयधवला टीका लिखने के पश्चात् वे स्वर्गवासी हुए। 1 इस जयधवला को उनके शिष्य जयसेन ( जिनसेन ) ने ४०००० श्लोकप्रमाण टीका और लिखकर पूर्ण किया ।" वीरसेनाचार्य का समय धवला व जयधवला के अन्त में प्राप्त प्रशस्तियों एवं अन्य प्रमाणों के आधार पर शक की आठवीं शताब्दी सिद्ध होता है । " धवला टीका :
पट्खण्डागम पर धवला टीका लिखकर वीरसेनाचार्य ने जैन साहित्य की महती सेवा की है । धवल का अर्थ शुक्ल के अतिरिक्त शुद्ध, विशद, स्पष्ट भी होता है । सम्भवतः अपनी टीका के इसी गुण को ध्यान में रखते हुए आचार्य ने यह नाम चुना हो । यह टीका जीवस्थान आदि पाँच खण्डों पर ही है, महाबन्ध नामक छठे खण्ड पर नहीं । इस विशाल टीका का लगभग तीन-चौथाई भाग प्राकृत ( शौरसेनी ) में तथा शेष भाग संस्कृत में है । इसमें जैन सिद्धान्त के प्रायः समस्त महत्त्वपूर्ण पहलुओं पर सामग्री उपलब्ध होती है ।
टीका के प्रारम्भ में आचार्य ने जिन, श्रुतदेवता, गणधरदेव, धरसेन, पुष्पदन्त एवं भूतबलि को नमस्कार किया है ।
सिद्धमणं तमणिदियमणुवममप्पुत्थ- सोक्खमणवज्जं केवल-पहोह - णिज्जिय-दुण्णय तिमिरं जिणं मह ॥ १ ॥ बारह अंगग्गिज्झा वियलिय - मल-मूढ - दंसणुत्तिलया । विविह-वर-चरण-भूसा
पसियउ सुय-देवया सुइरं ॥ २ ॥ सयल - गण - पउम-रविणो विविहद्धि-विराइया विणिस्संगा । णीया वि कुराया गणहर-देवा पसीयं ॥ ३ ॥ परियउ महु धरसेणो पर वाइ-गओह- दाण-वर सीहो । सिद्धता मिय- सायर-तरंग-संघाय - धोय-मणो पणमामि पुप्फदंतं दुकयंतं भग्ग - सिव- मग्ग- कंटयमिसि समिइ - वइं पणमह कय-भूय-बलि भूयबलि केस -वास - परिभूय बलिं । विणिय वम्मह-पसरं वड्ढाविय- विमल णाण वम्मह-पसरं ।। ६ ।।
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सया दंतं ॥ ५ ॥
१. षट्खण्डागम, पुस्तक १, प्रस्तावना, पृ० ३८.
२. वही, पृ० ३९-४५.
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दुष्णसंधयार-रवि ।
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