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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास प्रकृतियों से सम्बन्धित बन्धस्थान मिथ्यादृष्टि अथवा सासादनसम्यग्दृष्टि के होता है। छः प्रकृतियों से सम्बन्धित बन्धस्थान सम्यक्-मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत अथवा संयत के होता है। चार प्रकृतियों से सम्बन्धित बन्धस्थान केवल संयत के होता है। वेदनीय कर्म की दोनों प्रकृतियों का एक ही बन्धस्थान है । यह मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि , सम्यक्-मिथ्यादृष्टि , असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत अथवा संयत के होता है । मोहनीय कर्म के दस बन्धस्थान हैं : बाईस प्रकृतिसम्बन्धी, इक्कीस प्रकृतिसम्बन्धी, सत्रह प्रकृतिसम्बन्धी, तेरह प्रकृतिसम्बन्धी, नौ प्रकृतिसम्बन्धी, पाँच प्रकृतिसम्बन्धी, चार प्रकृतिसम्बन्धी, तीन प्रकृतिसम्बन्धी, दो प्रकृतिसम्बन्धी और एक प्रकृतिसम्बन्धी । आयु कर्म की चार प्रकृतियों का बन्ध करने वाले का एक ही भाव में अवस्थान होता है । नाम कर्म के आठ बन्धस्थान हैं : इकतीस प्रकृतिसम्बन्धी, तीस प्रकृतिसम्बन्धी, उनतीस प्रकृतिसम्बन्धी, अट्ठाईस प्रकृतिसम्बन्धी, छब्बीस प्रकृतिसम्बन्धी, पचीस प्रकृतिसम्बन्धी, तेईस प्रकृतिसम्बन्धी और एक प्रकृतिसम्बन्धी । गोत्र कर्म की दोनों प्रकृतियों का एक ही बन्धस्थान है । अन्तराय कर्म की पाँच प्रकृतियों का बन्धस्थान भी एक ही है।'
३. प्रथम महादण्डक-प्रथम सम्यक्त्वाभिमुख संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च अथवा मनुष्य पाँचों ज्ञानावरणीय, नवों दर्शनावरणीय, सातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलहों कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय तथा जुगुप्सा प्रकृतियों को बांधता है, आयु कर्म को नहीं बाँधता, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर आदि प्रकृतियों को बांधता है ।२
४. द्वितीय महादण्डक-प्रथम सम्यक्त्वाभिमुख देव अथवा सातवीं पृथ्वी के नारकी के अतिरिक्त अन्य नारकी पांचों ज्ञानावरणीय, नवों दर्शनावरणीय, सातावेदनीय आदि प्रकृतियों को बाँधता है, आयु कर्म को नहीं बाँधता, इत्यादि ।
५. तृतीय महादण्डक-प्रथम सम्यक्त्वाभिमुख सातवीं पृथ्वी का नारकी पाँचों ज्ञानावरणीय, नवों दर्शनावरणीय, सातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलहों कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय तथा जुगुप्सा प्रकृतियों को बाँधता है, आयु कर्म को नहीं बाँधता, तिर्यग्गति, पंचेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर आदि प्रकृतियों को बाँधता है, उद्योग प्रकृति को कदाचित् बाँधता है, कदाचित् नहीं बाँधता, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त आदि प्रकृतियों को बाँधता है ।४
१. सू० १-११७ ( स्थानसमुत्कीर्तन ). ३. सू० १-२ ( द्वितीय महादण्डक ).
२. सू० १-२ (प्रथम महादण्डक). ४. सू० १-२ (तृतीय महादण्डक ).
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