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कर्मप्राभृत
विशेषतया नरकगतिस्थित मिथ्यादृष्टि के औदयिक भाव, सासादन सम्यग्दृष्टि के पारिणामिक भाव, सम्यक् - मिथ्यादृष्टि के क्षायोपशमिक भाव होता है, आदि । "
८. अल्पबहुत्वानुगम -- सामान्यतया अपूर्वं करणादि तीन गुणस्थानों में उपशमक जीव प्रवेश की अपेक्षा से तुल्य हैं तथा सब गुणस्थानों से अल्प हैं । उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ भी उतने ही हैं । तीन प्रकार के क्षपक उनसे संख्येयगुणित हैं । क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ पूर्वोक्त प्रमाण ही हैं । सयोगिकेवली एवं अयोगिकेवली प्रवेश की अपेक्षा से तुल्य तथा पूर्वोक्त प्रमाण हैं । 2
विशेषतया नारकियों में सासादनसम्यग्दृष्टि सबसे कम हैं । सम्यक् - मिथ्यादृष्टि संख्येत हैं । असंयतसम्यग्दृष्टि सम्यक् - मिथ्यादृष्टियों से असंख्येयगुणित हैं । मिथ्यादृष्टि असंयतसम्यग्दृष्टियों से असंख्येय गुणित हैं । 3 इस प्रकार अल्पबहुत्व का विभिन्न दृष्टियों से विचार किया गया है । यहाँ तक जीवस्थान के सत्प्ररूपणा आदि आठ अनुयोगद्वारों का अधिकार है । इसके बाद प्रकृतिसमुकीर्तन आदि नौ चूलिकाएँ हैं ।
१. प्रकृतिसमुत्कीर्तन -कर्म की मूल प्रकृतियाँ आठ हैं : १. ज्ञानावरणीय, २. दर्शनावरणीय, ३. वेदनीय, ४. मोहनीय, ५. आयु, ६ नाम, ७. गोत्र, ८. अन्तराय । ज्ञानावरणीय कर्म की पाँच उत्तरप्रकृतियाँ हैं : १. आभिनिबोधक - ज्ञानावरणीय, २. श्रुतज्ञानावरणीय, ३. अवधिज्ञानावरणीय, ४. मन:पर्ययज्ञानावरणीय, ५. केवलज्ञानावरणीय । दर्शनावरणीय कर्म की नौ उत्तरप्रकृतियाँ हैं : १. निद्रानिद्रा, २. प्रचलाप्रचला, ३. स्त्यानगृद्धि, ४. निद्रा, ५. प्रचला, ६. चक्षुर्दर्शनावरणीय, ७. अचक्षुर्दर्शनावरणीय, ८. अवधिदर्शनावरणीय, ९. केवलदर्शनावरणीय | वेदनीय कर्म की दो, मोहनीय कर्म की अट्ठाईस, आयु कर्म की चार, नाम कर्म की बयालीस ( पिण्डप्रकृतियाँ ), गोत्र कर्म की दो और अन्तराय कर्म की पाँच उत्तरप्रकृतियाँ हैं ।"
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२, स्थानसमुत्कीर्तन - ज्ञानावरणीय कर्म की पाँच प्रकृतियों का बन्ध करने वाले का एक ही भाव में स्थान अर्थात् अवस्थान होता है । यह बंधस्थान मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यक् मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत अथवा संयत के होता है । दर्शनावरणीय कर्म के तीन बंधस्थान हैं : नौ प्रकृतियों से सम्बन्धित छ ः प्रकृतियों से सम्बन्धित और चार प्रकृतियों से सम्बन्धित । नौ
१. सू० १० - ९३. ३. सू० २७-३०.
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४. सू० ३१-३८२.
२. सू० १-६ ( अल्पबहुत्वानुगम). ५. सू० १-४६ ( पुस्तक ६ ).
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