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________________ कर्मप्राभृत होते हैं। शुक्ललेश्या वाले जीव संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगिकेवली पर्यन्त होते हैं । इसके आगे जीव अलेश्या वाले अर्थात् लेश्यारहित होते हैं।' ___ भव्यत्व की अपेक्षा से जीव भव्यसिद्धिक एवं अभव्यसिद्धिक होते हैं। भव्यसिद्धिक एकेन्द्रिय से लेकर अयोगिकेवली तक होते हैं । अभव्यसिद्धिक एकेन्द्रिय से लेकर संज्ञी मिथ्यादृष्टि तक होते हैं । सम्यक्त्व की अपेक्षा से जीव सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यक्-मिथ्यादृष्टि एवं मिथ्यादृष्टि होते हैं। सम्यग्दृष्टि तथा क्षायिकसम्यग्दृष्टि असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक होते हैं । वेदकसम्यग्दृष्टि असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होते हैं । उपशमसम्यग्दृष्टि असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक होते हैं। सासादनसम्यग्दृष्टि एक सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में ही होते हैं। सम्यक-मिथ्यादृष्टि एक सम्यक-मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में ही होते हैं। मिथ्यादृष्टि एकेन्द्रिय से लेकर संज्ञी मिथ्यादृष्टि तक होते हैं। प्रथम पृथ्वी के नारकी असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि एवं उपशमसम्यग्दृष्टि होते हैं। द्वितीयादि पृथ्वी के नारकी असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्षायिकसम्यग्दृष्टि नहीं होते अपितु वेदकसम्यग्दृष्टि तथा उपशमसम्यग्दृष्टि होते हैं। तिर्यञ्च असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि एवं उपशमसम्यग्दृष्टि होते हैं तथा संयतासंयत गुणस्थान में क्षायिकसम्यग्दृष्टि नहीं होते किन्तु वेदकसम्यग्दृष्टि एवं उपशमसम्यग्दृष्टि होते हैं। योनि वाले पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च असंयतसम्यग्दृष्टि तथा संयतासंयत दोनों गुणस्थानों में क्षायिकसम्यग्दृष्टि नहीं होते अपितु शेष दो सम्यग्दर्शनों से युक्त होते हैं । मनुष्य असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत एवं संयत गुणस्थान में क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि एवं उपशमसम्यग्दृष्टि होते हैं । देव असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि तथा उपशमसम्यग्दृष्टि होते हैं। भवनवासी, वानव्यन्तर एवं ज्योतिष्क देव और १. सू० १३६-१४०. ४. सू० १५३-१५५. २. सृ० १४१-१४३. ५. सू० १५८-१६१. ३. सू० १४४-१५०. ६. सू० १६४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002097
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, Agam, Karma, Achar, & Philosophy
File Size14 MB
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