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कर्मवाद
२. सत्ता – बद्ध कर्म-परमाणु अपनी निर्जरा अर्थात् क्षय होने तक आत्मा से सम्बद्ध रहते हैं । इसी अवस्था का नाम सत्ता है । इस अवस्था में कर्म अपना फल प्रदान न करते हुए विद्यमान रहते हैं ।
३. उदय-कर्म की स्वफल प्रदान करने की अवस्था का नाम उदय है । उदय में आनेवाले कर्म- पुद्गल अपनी प्रकृति के अनुसार फल देकर नष्ट हो जाते हैं । कर्म - पुद्गल का नाश क्षय अथवा निर्जरा कहलाता है ।
४. उदीरणा - नियत समय से पूर्व कर्म का उदय में आना उदीरणा कहलाता है । जैन कर्मवाद कर्म की एकान्त नियति में विश्वास नहीं करता । जिस प्रकार प्रयत्नपूर्वक नियत काल से पहले फल पकाये जा सकते हैं उसी प्रकार प्रयत्नपूर्वक नियत समय से पूर्व बद्ध कर्मों को भोगा जा सकता है । सामान्यतः जिस कर्म का उदय जारी होता है उसके सजातीय कर्म की ही उदीरणा संभव होती है ।
बन्धन, सत्ता, उदय और उदीरणा में कितनी कर्म- प्रकृतियाँ (उत्तरप्रकृतियाँ) होती हैं, इसका भी जैन कर्मशास्त्रों में विचार किया गया है । बन्धन में कर्म - प्रकृतियों की संख्या एक सौ बीस, उदय में एक सौ बाईस, उदीरणा में भी एक सौ बाईस तथा सत्ता में एक सौ अठावन मानी गई है। नीचे की तालिका' में इन चारों अवस्थाओं में रहनेवाली उत्तरप्रकृतियों की संख्या दी जाती है :
बन्ध
उदय
उदीरणा
१. ज्ञानावरणीय कर्म
दर्शनावरणीय कर्म
२,
३. वेदनीय कर्म
४. मोहनीय कर्म
५. आयु
कर्म
६. नाम कर्म
७. गोत्र कर्म
८. अन्तराय कर्म
२६
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२८
४
६७
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४
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सत्ता
योग १२०
१२२
१२२
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सत्ता में समस्त उत्तरप्रकृतियों का अस्तित्व रहता है जिनकी संख्या एकसौ अठावन है । उदय में केवल एक सौ बाईस प्रकृतियाँ रहती हैं क्योंकि इस अवस्था में पंदरह बंधन तथा पाँच संघातन- - नाम कर्म की ये बीस प्रकृतियाँ अलग से नहीं १. कर्मविपाक ( पं० सुखलालजीकृत हिन्दी अनुवाद ), पृ० १११.
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