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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास पर्याप्त जानकारी दी गई है। इसमें कई कल्प संस्कृत में हैं तो कई जैन महाराष्ट्री में हैं । कई पद्य में हैं तो कई गद्य में है। सभी कल्पों की रचना एक ही स्थान पर और एक ही समय में नहीं हुई। किसी-किसी कल्प में ही रचना-वर्ष का उल्लेख आता है । ग्यारहवाँ वैभारगिरिकल्प वि० सं० १३६४ में रचा गया था, ऐसा निर्देश स्वयं ग्रन्थकार ने किया है। समग्र ग्रन्थ के अन्त में प्राप्त समाप्तिकथन में वि० सं० १३८९ का उल्लेख है। अतः यह ग्रन्थ लगभग वि० सं० १३६४ से १३८९ की समयावधि में रचा गया होगा।
समाप्तिकथन के अनुसार यह ग्रन्थ ३५६० श्लोक-परिमाण है। इसके दूसरे पद्य में प्रश्नोत्तर द्वारा ग्रन्थकार ने अपना नाम सूचित किया है।
प्रस्तुत ग्रन्थ में ६०-६१ कल्प हैं। इनमें से ग्यारह स्तवनरूप हैं, छ: कथा-चरित्रात्मक हैं तथा अवशिष्ट में स्थानों का वर्णन आता है । अन्तिम प्रकार के कल्पों में से 'चतुरशीतिमहातीर्थनामसंग्रह' नामक ४५ वें कल्प में तो केवल तीर्थों के नाम ही गिनाए गए हैं। गिरिनारगिरि के चार कल्प हैं, जबकि स्तम्भनकतीर्थ और कन्यानय-महावीरतीर्थ के दो-दो कल्प हैं।
ढीपुरीतीर्थकल्प में वंकचूल की कथा आती है। उसके आदिम एवं अन्तिम -श्लोक तथा अन्त की दूसरी दो-तीन पंक्तियों के अतिरिक्त सम्पूर्ण कल्प चतुर्विंशतिप्रबन्ध के सोलहवें वंकचूलप्रबन्ध के नाम से भी प्रसिद्ध है।
इस ग्रन्थ में उल्लिखित तीर्थ गुजरात, सौराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मालवा, पंजाब, अवध, बिहार, महाराष्ट्र, विदर्भ, कर्णाटक और तैलंगण में हैं । इनके नाम अकारादि क्रम से निम्नांकित हैं :
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१. अणहिलपुरस्थित अरिष्टनेमि
(प्रा.) २. अपापापुरी (प्रा.) ३. , ,, (सं.)
। ४. अम्बिकादेवी (प्रा.) ६१
५. अयोध्यानगरी (प्रा.) १३ २१ । ६. अर्बुदाद्रि (सं.) १४ । ७. अवन्तीदेशस्थ अभिनन्दन (सं.) ३२
१. इसमें अनुश्रुति को भी स्थान दिया गया है । २. इसे 'दीपोत्सवकल्प' भी कहते हैं।
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