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विधि-विधान, कल्प, मंत्र, तंत्र, पर्व और तीर्थ
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प्रशंसा, मोहरूप वृक्ष का उन्मूलन तथा धर्मसर्वस्व की देशना-इन विषयों का वर्णन आता है। ___इसकी एक टीका के रचयिता जिनप्रभसूरि हैं। इसपर एक अज्ञातकर्तृक वृत्ति भी है। इसका प्रारम्भ 'श्रीवीरस्य पदाम्भोज' से हुआ है। यन्त्रराज :
इसे यन्त्रराजागम तथा सक्यन्त्रराजागम' भी कहते हैं। इसकी रचना मदनसूरि के शिष्य महेन्द्रसूरि ने १७८ पद्यों में शक संवत् १२९२ में की है। यह १. गणित, २. यन्त्रघटना, ३. यन्त्ररचना, ४. यन्त्रशोधन और ५. त्रयन्-. विचारणा इन पाँच अध्यायों में विभक्त है । इसके पहले अध्याय में ज्या, क्रान्ति, सौम्य, याम्य आदि यन्त्रों का निरूपण है। दूसरे अध्याय में यन्त्र की रचना के विषय में विचार किया गया है। तीसरे में यन्त्र के प्रकार और साधनों का उल्लेख आता है। चौथे में यन्त्र के शोधन का विषय निरूपित है। पांचवें में ग्रह एवं नक्षत्रों के अंश, शंकु की छाया तथा भौमादि के उदय और अस्त का. वर्णन है। _____टीका-मलयेन्दुसूरिकृत टीका में विविध कोष्ठक आते हैं। यन्त्रराजरचनाप्रकार :
.यह सवाई जयसिंह की रचना है। कल्पप्रदीप अथवा विविधतोर्थकल्प :
यह जिनप्रभसूरि की सुप्रसिद्ध एवं महत्त्वपूर्ण कृति है। इसमें ऐतिहासिक एवं भौगोलिक सामग्री के अतिरिक्त जैन तीर्थों की उत्पत्ति इत्यादि के विषय में
१. यह कृति मलयेन्दुसूरि की टीका के साथ निर्णयसागर मुद्रणालय ने सन्
१९३६ में प्रकाशित की है। २-३. इसका विशेष विवरण जैन संस्कृत साहित्यनो इतिहास ( खण्ड १ ) के
उपोद्घात ( पृ० ७६-७ ) में तथा 'यन्त्रराज का रेखादर्शन' नामक लेख में दिया गया है। यह लेख जैनधर्म प्रकाश (पु० ७५, अंक ५-६ ) में प्रका
शित हुआ है। ४. यह ग्रंथ 'विविधतीर्थकल्प' के नाम से सिंघी जैन ग्रन्थमाला में सन् १९३४
में प्रकाशित हुआ है। इसे 'तीर्थकल्प' भी कहते हैं। इसके अन्त में दी गई विशेष नामों की सूची में कई 'यावनी' भाषा के तथा स्थानों के. भी शब्द है।
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