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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
की विधि, ४. बारह यंत्र के भेद का कथन, ५. स्तम्भन, ६. स्त्री का आकर्षण, ७. वश्यकर्म का यंत्र, ८. दर्पण आदि निमित्त ९ वश्य ( वशीकरण ) की औषधि और १०. गारुडिक ।
प्रथम अधिकार के पहले श्लोक में पार्श्वनाथ को प्रणाम करके 'भैरव पद्मावतीकल्प' के कहने की प्रतिज्ञा आती है । दूसरे में पद्मावती का वर्णन आता है और तीसरे में उसके तोतला, त्वरिता, नित्या, त्रिपुरा, कामसाधिनी और त्रिपुरभैरवी - ये छः नाम दिये गये हैं । पाँचवें में कर्ता एवं पुस्तक का नाम तथा आर्या, गीति एवं श्लोक ( अनुष्टुप् ) में रचना की जायगी, ऐसा निर्देश है । पद्य ६ से १० में मंत्र - साधक अर्थात् मंत्र सिद्ध करने वाले साधक के विविध लक्षण दिये गये हैं; जैसे कि - काम, क्रोध आदि के ऊपर विजय प्राप्त, जिनेश्वर और पद्मावती का भक्त, मौन धारण करनेवाला, उद्यमी, संयमी जीवन बितानेवाला, सत्यवादी, दयालु और मंत्र के बीजभूत पदों का अवधारण करनेवाला | ग्यारहवें पद्य में उपर्युक्त गुणों से रहित जो जप करता है उसे पद्मावती नाना प्रकार के विघ्न उपस्थित करके हैरान करती है, ऐसा कहा है ।
दूसरे अधिकार में मंत्र साधक द्वारा की जानेवाली आत्मरक्षा के बारे में, साध्य और साधक के अंश गिनने की रीति के विषय में तथा कौन - सा मंत्र कब सफल होता है, इसके विषय में जानकारी दी गई है । बारहवें पद्य में पद्मावती का वर्णन आता है, जिसमें उसे तीन नेत्रोंवाली और कुर्कुट - सर्परूप वाहनवाली कहा गया है । इसके अतिरिक्त आय, सिद्ध, साध्य, सुसिद्ध और शत्रु की व्याख्या दी गई है ।
तीसरे अधिकार में शान्ति, विद्वेष, वशीकरण, बन्ध, स्त्री- आकर्षण और स्तम्भन —— इन छः प्रकार के कर्मों का और इनकी दीपन, पल्लव, सम्पुट, रोधन, ग्रथन और विदर्भन नाम की विधि का निरूपण है । इसके पश्चात् उपर्युक्त छः प्रकार के कर्मों के काल, दिशा, मुद्रा, आसन, वर्ण, मनके आदि का विवेचन किया गया है । इसके बाद गृहयंत्रोद्धार, लोकपाल एवं आठ देवियों की स्थापना,
१. ये नाम पद्मावती के भिन्न-भिन्न वर्ण व हाथ में रही हुई भिन्न-भिन्न वस्तुओं के आधार पर दिये गये हैं । इनकी स्पष्टता 'अनेकान्त' ( वर्ष १, पृ० ४३० ) में की गई है ।
२. ऐसे वर्णनवाली एक देवी की वि० सं० १२५४ में प्रतिष्ठित मूर्ति ईडर के सम्भवनाथ के दिगम्बर मन्दिर में है ।
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