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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास पद्य और अन्त में तीन पद्य हैं। इनके अतिरिक्त अन्तिम भाग में प्रतिक्रमण के आठ पर्यायों के विषय में एक-एक दृष्टांत पद्य में है। पत्र २४ आ और २५ अ में आये हुए उल्लेख के अनुसार ये दृष्टान्त आवश्यक को लघुवृत्ति में से उद्धृत किये गये हैं।
मुख्य रूप से गद्यात्मक इस कृति में प्रतिक्रमण के सूत्रों के क्रम का हेतु तथा प्रतिक्रमण में अमुक क्रिया के पश्चात् अमुक क्रिया क्यों की जाती है इसपर प्रकाश डाला गया है । बीच-बीच में उद्धरण भी दिये गये है । यहाँ प्रतिक्रमण से आवश्यक अभिप्रेत है। यह आवश्यक सामायिक आदि छः अध्ययनात्मक है । इन सामायिक आदि से ज्ञानाचार आदि पाँच आचारों में से किसकी शुद्धि होती है यह बतलाया है। देववन्दन के बारह अधिकार, कायोत्सर्ग के १९ दोष, वन्दनक के ३२ दोष, देवसिक आदि पांच प्रतिक्रमणों की विधि, प्रतिक्रमण के प्रतिक्रमण, प्रतिचरणा, प्रतिहरणा, वारणा, निवृत्ति, निन्दा, गर्हा और शुद्धिये आठ पर्याय और इनमें से प्रारम्भ के सात की स्पष्टता करने के लिए अनुक्रम से मार्ग, प्रासाद, दूध की बहँगी, विषभोजन, दो कन्याएँ, चित्रकार की पुत्री और पतिघातक स्त्री ये सात दृष्टान्त तथा आठवें पर्याय के बोध के लिए वस्त्र एवं औषधि के दो दृष्टान्त दिये गये हैं। अन्त में गन्धर्व नागदत्त एवं वैद्य के दृष्टान्त दिये गये हैं। पर्युषणाविचार :
यह हर्षसेनगणो के शिष्य हर्षभूषणगणी की कृति है। इसे पर्युषणास्थिति एवं वर्तितभाद्रपदपर्युषणाविचार भी कहते हैं। यह वि० सं० १४८६ की रचना है और इसमें २५८ पद्य हैं । इसमें पर्युषणा के विषय में विचार किया गया है। श्राद्धविधिविनिश्चय :
यह भी उपर्युक्त हर्षभूषणगणी की वि० सं० १४८० में रचित कृति है। दशलाक्षणिकव्रतोद्यापन :
इसके रचयिता अभयनन्दी के शिष्य सुमतिसागर हैं। इसका प्रारम्भ 'विमलगुणसमद्ध' से किया गया है। इसमें क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, १. यह 'शान्तिसागर दिगम्बर ग्रन्थमाला' ( सन् १९५४ ) के 'दिगम्बर जैन
व्रतोद्यापनसंग्रह' की दूसरी आवृत्ति के अन्त में दिया गया है। इसमें आशाधरकृत महाभिषेक, महीचन्द्र शिष्य जयसागरकृत रविव्रतोद्यापन तथा श्रीभूषणकृत षोडशकारणवतोद्यापन भी छपे हैं ।
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