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विधि-विधान, कल्प, मंत्र, तंत्र, पर्व और तीर्थ
३०१ और उसके चौदहवें पद्य में जिनवल्लभसूरिकृत 'पोसहविहिपयरण' देखने का निर्देश किया है । इसमें पौषध की विधि का विचार किया गया है ।
टोका-इस पर जिनमाणिक्यसूरि के शिष्य जिनचन्द्रसूरि ने वि० सं० १६१७ में ३५५५ श्लोक-परिमाण एक टीका लिखी है । २. पोसहविहिपयरण ( पौषधविधिप्रकरण ) :
जैन महाराष्ट्री में देवभद्ररचित इस कृति में ११८ पद्य हैं। इसी नाम की एक कृति चक्रेश्वरसूरि ने ९२ पद्यों में लिखी है। इन दोनों का विषय पौषध की विधि की विचारणा है । पोसहियपायच्छित्तसामायारी ( पौषधिकप्रायश्चित्तसामाचारी ):
अज्ञातकर्तृक इस कृति में जैन महाराष्ट्री में १० पद्य हैं।
टीका-इस पर तिलकाचार्य ने एक वृत्ति लिखी है । सामायारी ( सामाचारी) :
यह जिनदत्तसूरि के प्रशिष्य जिनपतिसूरि ने जैन महाराष्ट्री के ७९ पद्य में लिखी है। यह सामाचारीशतक ( पत्र १३९ आ-१४१ आ ) में उद्धृत की गई है। विहिमग्गप्पवा (विधिमार्गप्रपा ):
जिनप्रभसूरि ने प्रायः जैन महाराष्ट्री में कोसल ( अयोध्या ) में वि० सं० १३६३ में इसकी रचना की थी। यह ३५७५ श्लोक-परिमाण है। 'विधिमार्ग' खरतरगच्छ का नामान्तर है । इस प्रकार इस कृति में खरतरगच्छ के अनुयायियों के विधि-विधान का निर्देश है। यह रचना प्रायः गद्य में है । प्रारम्भ के पद्य में कहा है कि यह श्रावकों एवं साधुओं की सामाचारी है। अन्त में सोलह पद्यों की प्रशस्ति है। इसके पहले के छः पद्यों में प्रस्तुत कृति जिन ४१ द्वारों में विभक्त है उनके नाम आते हैं और तेरहवें पद्य के द्वारा कर्ता ने सरस्वती एवं पद्मावती से श्रत की ऋद्धि समर्पित करने की प्रार्थना की है। उपर्युक्त ४१ द्वारों में अधोलिखित विषयों को स्थान दिया गया है :
१. मुद्राविधि नामक ३७वे द्वार का निरूपण (पृ० ११४-६ ) संस्कृत
३. यह 'जिनदत्तसूरि भण्डार ग्रन्थमाला' में सन् ११४१ में प्रकाशित हुई है।
इसका प्रथमादर्श कर्ता के शिष्य उदयाकरगणी ने लिखा था।
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