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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास प्रणेता कुन्दकुन्दाचार्य हैं, तो दूसरी के पूज्यपाद-ऐसा प्रभाचन्द्र ने सिद्धभक्ति ( गाथा १२ ) की क्रियाकलाप नाम की टीका ( पृ० ६१ ) में कहा है, परन्तु दोनों प्रकार की कृतियाँ कितनो-कितनो हैं इसका उल्लेख उन्होंने नहीं किया।
१. सिद्धभत्ति ( सिद्धभक्ति )-इसमें बारह पद्य हैं ऐसा प्रभाचन्द्र को टीका देखने पर ज्ञात होता है। इस भक्ति में कहाँ-कहाँ से और किस-किस रीति से जीव सिद्ध हुए हैं यह कह कर उन्हें वन्दन किया गया है। इसमें सिद्धों के सुख एवं अवगाहन के विषय में उल्लेख है । अन्त में आलोचना आती है ।
२. सुदभत्ति (श्रुतभक्ति )-इसमें बारह अंगों के नाम देकर दृष्टिवाद के भेद एवं प्रभेदों के विषय में निर्देश किया गया है ।
३. चारित्तभत्ति ( चारित्रभक्ति )-इसमें दस पद्य हैं। इसमें चारित्र के सामायिक आदि पाँच प्रकार तथा साधुओं के मूल एवं उत्तर गुणों का निर्देश किया गया है।
४. अणगारभत्ति (अनगारभक्ति )-२३ पद्यों की इस कृति को 'योगिभक्ति' भी कहते हैं। इसमें सच्चे श्रमण का स्वरूप, उनके सद्गुणों को दो-तोन से लेकर चौदह तक के समूह द्वारा, स्पष्ट किया गया है । उनकी तपश्चर्या एवं भिन्नभिन्न प्रकार की लब्धियों का यहाँ उल्लेख किया गया है। इस कृति में गुणधारी अनगारों का संकीर्तन है।
५. आयरियत्ति ( आचार्यभक्ति)-इसमें दस पद्य है। इसमें आदर्श आचार्य का स्वरूप बतलाया है। उन्हें क्षमा में पृथ्वी के समान, प्रसन्न भाव में स्वच्छ जल जैसे, कर्मरूप बन्धन को जलाने में अग्नि तुल्य, वायु की भाँति निःसंग, आकाश की तरह निर्लेप और सागरसम अक्षोभ्य कहा है ।।
६. पंचगुरुभत्ति ( पंचगुरुभक्ति )-सात पद्यों की इस कृति को पंचपरमेट्ठि भत्ति' भी कहते हैं। इसमें अरिहन्त आदि पाँच परमेष्ठियों का स्वरूप बतला कर उन्हें नमस्कार किया गया है । इसमें पहले के छः पद्य स्रग्विणी छन्द में और अन्तिम आर्या में है।
७. तित्थयरभत्ति ( तीर्थंकरभक्ति )-इसमें आठ पद्य हैं । इसमें ऋषभदेव १. दशभक्त्यादिसंग्रह पृ० १२-३ में यह भक्ति आती है, किन्तु वहाँ इसका ___ 'भत्ति' के रूप में निर्देश नहीं है ।
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