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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास श्रेष्ठी, आभड श्रेष्ठी, सेठ की पुत्री, दो मित्र, हेलाक श्रेष्ठी, विश्व मेरा (विजयपाल), महणसिंह, धनेश्वर, देव और यशःश्रेष्ठी, सोम नृप, रंक श्रेष्ठी, बुढ़िया, मंथर कोयरी, धन्य श्रेष्ठी, धनेश्वर श्रेष्ठी, धर्मदास, द्रमक मुनि, दण्डवीर्य नृप, लक्ष्मणा साध्वी और उदायन नृपति । विषयनिग्रहकुलक :
यह अज्ञातकर्तृक कृति है। इसमें इन्द्रियों को संयम में रखने का उपदेश दिया गया है।
टीका-इसपर वि० सं० १३३७ में भालचन्द्र ने १०, ००८ श्लोक-परिमाण एक वृत्ति लिखी है। प्रत्याख्यानसिद्धि :
यह अज्ञातकर्तृक कृति है ।
टोकाएं-इसपर ७०० श्लोक-परिमाण एक विवरण सोमसुन्दरसूरि के 'शिष्य जयचन्द्र ने लिखा है। जिनप्रभसूरि ने भी एक विवरण लिखा है। इसके
अलावा इसपर किसी ने १५०० श्लोक-परिमाण टीका भी लिखी है। • आचारप्रदीप:
४०६५ श्लोक-परिमाण यह कृति' मुनिसुन्दरसूरि के शिष्य रत्नशेखरसूरि ने वि० सं० १५१६ में रची है। इनका जन्म वि० सं० १४५७ या १४५२ में हआ था । इन्होंने दीक्षा वि० सं० १४६३ में ग्रहण की और पण्डित पद १४८३ में, वाचकपद १४९३ में तथा सूरिपद १५०२ में प्राप्त किया था। इनका स्वर्गवास वि० सं०१५१७ में हुआ था। साधुरत्नसूरि इनके प्रतिबोधक गुरु तथा भुवनसुन्दरसूरि विद्यागुरु थे।
रत्नशेखरसूरि ने वि० सं० १४९६ में अर्थदीपिका अर्थात् श्राद्धप्रतिक्रमणवृत्ति और वि० सं० १५०६ में सड्ढाविहि (श्राद्धविधि) और उसको वृत्ति लिखी
१. यह ग्रन्थ देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार संस्था ने सन् १९२७ में
प्रकाशित किया है। इसमें आनन्दसागरसूरि का संस्कृत उपोद्धात एवं अवतरणों का अनुक्रम दिया गया है। इसका प्रथम प्रकाश, प्राकृत विभाग की संस्कृत-छाया एवं गुजराती अनुवाद खेड़ा की जैनोदय सभा ने वि० सं० १९५८ में छपवाया है।
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