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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास पिंडविसुद्धि (पिण्डविशुद्धि):
यह जैन महाराष्ट्री में १०३ पद्यों की कृति है। इसे 'पिंडविसोहि' भी कहते हैं। इसके रचयिता जिनवल्लभसूरि ने इसमें आहार की गवेषणा के ४२ दोषों का निर्देश करके उन पर विचार किया है। ___टीकाएँ-इस पर 'सुबोधा' नाम की २८०० श्लोक-परिमाण एक टीका श्रीचन्द्रसूरि के शिष्य यशोदेव ने वि० सं० ११७६ में लिखी है। अजितप्रभसूरि ने भी एक टीका लिखी है। श्रीचन्द्रसूरि ने वि० सं ११७८ में एक वृत्ति लिखी है । उदयसिंह ने 'दीपिका' नामकी ७०३ श्लोक-परिणाम एक अन्य टीका वि. सं. १२९५ में लिखी है। ये श्रीप्रभ के शिष्य माणिक्यप्रभ के शिष्य थे । यह टीका उपयुक्त सुबोधा के आधार पर रची गई है। इसके अतिरिक्त अन्य एक अज्ञातकर्तृक दीपिका नाम की टीका भी है। इस मूल कृति पर रत्नशेखरसूरि के शिष्य संवेगदेवगणी ने वि० सं० १५१३ में एक बालावबोध लिखा है । सड्ढजीयकप्प (श्राद्धजीतकल्प) :
यह देवेन्द्रसरि के शिष्य धर्मघोषसरि ने वि० सं० १३५७ में लिखा है। इसमें १४१ तथा किसी-किसी के मत से २२५ पद्य हैं। इसमें श्रावकों की 'प्रवृत्तियों का विचार किया गया है।
____टोकाएं-इस पर सोमतिलकसूरि ने २५४७ श्लोक-परिमाण एक वृत्ति लिखी है । इसके अतिरिक्त इस पर अज्ञातकर्तृक एक अवचूरि भी है। . १. सड्ढदिणकिच्च (श्राद्धदिनकृत्य) :
जैन महाराष्ट्री में रचित ३४४ पद्यों की यह कृति जगच्चन्द्रसूरि के शिष्य देवेन्द्रसूरि को रचना है। इसमें श्रावकों के दैनन्दिन कृत्यों के विषय में विचार किया गया है।
टोका-इस पर १२८२० श्लोक-परिमाण एक स्वोपज्ञ वृत्ति है । इसके अतिरिक्त एक अज्ञातकर्तृक अवचूरि भी है। २ सड्ढदिणकिच्च (श्राद्धदिनकृत्य) :
'वीरं नमे (मि) ऊण तिलोयभाणु' से शुरू होनेवाली और जैन महाराष्ट्री के ३४१ पद्यों में लिखी गई यह कृति उपयुक्त 'सड्ढदिणकिच्च' है या अन्य, १. यह ग्रन्थ श्रीचन्द्रसूरि की वृत्ति के साथ 'विजयदान ग्रन्थमाला' सूरत से
सन् १९३९ में प्रकाशित हुआ है । २. रामचन्द्रगणी के शिष्य आनन्दवल्लभकृत हिन्दी बालावबोध के साथ यह
ग्रन्थ सन् १८७६ में 'बनारस जैन प्रभाकर' मुद्रणालय में छपा है ।
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