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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास अनेक बार उल्लेख आते हैं। इस से ज्ञात होता है कि चूर्णिकार सामाचारी को बहत महत्वपूर्ण मानते हैं । मुख्यतया मण्डनात्मक शैली में रचित इस चूणि (पत्र १०४ आ) में 'तुलादण्ड' न्याय का उल्लेख है।
/आवश्यक की चूणि के देशविरति अधिकार की 'जारिसो जइभेओ' से शरू होनेवाली गाथाओं के आधार पर जिस तरह नवपयपयरण में नौ द्वारों का प्रतिपादन किया गया है उसी प्रकार यहाँ भी नौ द्वारों का निरूपण है।
/ इस चूर्णि की रचना में आधारभूत सामग्री के रूप में विविध ग्रन्थों का साक्ष्य दिया गया है और अन्त में पंचाशक की अभयदेवसूरिकृत वृत्ति, आवश्यक की चणि और वृत्ति, नवपयपयरण और सावयपण्णत्ति के उपयोग किये जाने का उल्लेख है। धर्मसारः
यह हरिभद्रसरि की कृति है । पंचसंग्रह की ८वीं गाथा की टीका में (पत्र ११ आ) मलयगिरिसूरि ने इसका उल्लेख किया है, परन्तु अबतक यह अनुपलब्ध है।
टोका-देवेन्द्रसूरि ने 'छासीइ' कर्मग्रन्थ की अपनी वृत्ति ( पृ० १६१ ) में इसका उल्लेख किया है, परन्तु यह भी मूल की भांति अबतक प्राप्त नहीं हो सकी है। सावयधम्मतंत ( श्रावकधर्मतंत्र):
हरिभद्रसूरि को जैन महाराष्ट्री में १२० गाथाओं की यह कृति 'विरह' पद से अंकित है। इसे श्रावकधर्मप्रकरण भी कहते हैं। इसमें श्रावक शब्द की
१. प्रथम पंचाशक का मुनि श्री शुभंकरविजयकृत गुजराती अनुवाद 'नेमि
विज्ञान-ग्रन्थमाला ( सन् १९४९ ) में प्रकाशित हुआ है और उसका नाम 'श्रावकधर्मविधान' रखा है।
प्रथम चार पंचाशक एवं उतने भाग की अभयदेवसूरि की वृत्ति का सारांश गुजराती में पं० चन्द्रसागरगणी ने तैयार किया है । यह सारांश
'सिद्धचक्र साहित्य प्रचारक समिति' ने सन् १९४९ में प्रकाशित किया है । २. मानदेवसूरिकृत वृत्ति के साथ यह सन् १९४० में 'केशरबाई जैन ज्ञान
मन्दिर' ने 'श्री श्रावकधर्मविधिप्रकरणम्' के नाम से प्रकाशित की है । इसमें गुजराती में विषयसूची तथा मूल एवं वृत्तिगत पद्यों की अकारादि क्रम से सूची दी गई है।
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