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________________ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास एतद्विषयक प्रचुर सामग्री उपलब्ध है । बौद्ध त्रिपिटकों में पकुध कात्यायन एवं पूरण कश्यप को भी इसी मत का समर्थक बताया गया है । यदृच्छावाद — यदृच्छावादियों की मान्यता है कि किसी निश्चित कारण के. बिना ही कार्य की उत्पत्ति हो जाती है । कोई भी घटना निष्कारण अर्थात् अकस्मात् ही होती है । न्यायसूत्रकार के शब्दों में यदृच्छावाद का मन्तव्य है कि अनिमित्त अर्थात् किसी निमित्तविशेष के बिना ही काँटे की तीक्ष्णता के समान भावों की उत्पत्ति होती है । यदृच्छावाद, अकस्मात्वाद और अनिमित्तवाद एकार्थक हैं । इनमें कार्यकारणभाव अथवा हेतुहेतुमद्भाव का सर्वथा अभाव है । १० भूतवाद - भूतवादी पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु इन चार भूतों से ही समस्त चेतन-अचेतन पदार्थों की उत्पत्ति मानते हैं । भूतों के अतिरिक्त कोई स्वतन्त्र जड़ अथवा चेतन तत्त्व जगत् में विद्यमान नहीं है । जिसे हम आत्मतत्त्व अथवा चेतनतत्त्व कहते हैं वह इन्हीं चतुर्भूतों की एक परिणतिविशेष है जो परिस्थितिविशेष में उत्पन्न होती है और उस परिस्थिति की अनुपस्थिति में स्वतः नष्ट हो जाती है- बिखर जाती है । जिस प्रकार चूना, सुपारी, कत्था, पान आदि का विशिष्ट संयोग अथवा सम्मिश्रण होने पर लाल रंग उत्पन्न हो जाता है उसी प्रकार भूतचतुष्टय के विशिष्ट सम्मिश्रण से चैतन्य को उत्पत्ति होती है चैतन्य हमेशा शरीर से सम्बद्ध रहता है एवं शरीर का नाश होते ही- -भूतचतुष्टय के संयोग में कुछ गड़बड़ी होते ही चैतन्य भी नष्ट हो जाता है । अतः इस लोक के अतिरिक्त अन्य लोक की सत्ता स्वीकार करना मूर्खता का द्योतक है । मनुष्य जीवन का एक मात्र ध्येय ऐहलौकिक आनन्द है । पारलौकिक सुखसम्प्राप्ति के जितने भी तथाकथित साधन हैं, सब व्यर्थ हैं । ऐहलौकिक सुख को छोड़ कर किसी अन्य सुख की कल्पना करना अपने-आपको धोखा देना है । प्रत्यक्ष ही प्रमाण है और उपयोगिता ही आचार-विचार का मानदण्ड है । डार्विन का विकासवाद का सिद्धान्त भी भौतिकवाद का ही एक परिष्कृत रूप है । इसके अनुसार प्राणियों की शारीरिक एवं प्राणशक्ति का क्रमशः विकास होता है। जड़ तत्त्वों के विकास के साथ ही साथ चेतन तत्त्व का भी विकास होता जाता है । यह चेतन तत्त्व जड़ तत्त्व का ही एक अंग हैं, उससे सर्वथा भिन्न एवं स्वतन्त्र तत्त्व नहीं । १. दीघनिकाय : सामञ्जफल सुत्त. ३. सर्वदर्शनसंग्रह, परिच्छेद १. Jain Education International २. न्यायसूत्र ४, १, For Private & Personal Use Only २२. www.jainelibrary.org
SR No.002097
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, Agam, Karma, Achar, & Philosophy
File Size14 MB
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