SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्मवाद और महाभारत में भी स्वभाववाद का उल्लेख है।' स्वभाववादी प्रत्येक कार्य को स्वभावमूलक ही मानता है । वह जगत् की विचित्रता का कोई नियन्त्रक अथवा नियामक नहीं मानता। ... नियतिवाद-नियतिवादियों का मत है कि संसार में जो कुछ होना होता है वही होता है अथवा जो होना होता है वह अवश्यमेव होता है । घटनाओं का अवश्यम्भावित्व पूर्वनिर्धारित है । दूसरे शब्दों में संसार की प्रत्येक घटना पहले से ही नियत है। प्राणी के इच्छा-स्वातन्त्र्य का कोई मूल्य नहीं है अथवा यों कहिए कि इच्छा-स्वातन्त्र्य नाम की कोई चीज ही नहीं है। पाश्चात्य दार्शनिक स्पिनोजा इसी मत का समर्थक था। वह मानता था कि व्यक्ति केवल अपने अज्ञान के कारण ऐसा सोचता है कि मैं भविष्य को बदल सकता हूँ। जो कुछ होना होगा, अवश्य होगा। भविष्य भी उसी प्रकार सुनिश्चित एवं अपरिवर्तनीय है जिस प्रकार अतीत अर्थात् भूत । यही कारण है कि आशा अथवा भय निरर्थक है। इसी प्रकार किसी को प्रशंसा करना अथवा किसी पर दोष मढ़ना भी व्यर्थ है। - बौद्ध त्रिपिटकों एवं जैनागमों में नियतिवाद के विषय में अनेक बातें उपलब्ध होती हैं। दीघनिकाय के सामञ्जफल सुत्त में मंखली गोशालक के नियतिवाद का वर्णन किया गया है। गोशालक मानता था कि प्राणियों की अपवित्रता का कुछ भी कारण नहीं है । वे कारण के बिना ही अपवित्र होते हैं । इसी प्रकार प्राणियों की शुद्धता का भी कोई कारण अथवा हेतु नहीं है । हेतु और कारण के बिना ही वे शुद्ध होते हैं। अपने सामर्थ्य के बल पर कुछ नहीं होता । पुरुष के सामर्थ्य के कारण किसी पदार्थ की सत्ता है, ऐसी बात नहीं है । न बल है, न वीर्य है, न शक्ति अथवा पराक्रम ही है । सभी सत्त्व, सभी प्राणी, सभी जीव अवश है, दुर्बल हैं, वीर्यविहीन हैं। उनमें नियति, जाति, वैशिष्ट्य एवं स्वभाव के कारण परिवर्तन होता है । छः जातियों में से किसी एक जाति में रहकर सब दुःखों का उपभाग किया जाता है । चौरासी लाख महाकल्पों के चक्र में घूमने के बाद बुद्धिमान् और मूर्ख दोनों के दुःख का नाश हो जाता है । जैन आगमों में भो नियतिवाद अथवा अक्रियावाद का रोचक वर्णन किया गया है । उमासादशांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति ( भगवती सूत्र ), सूत्रकृतांग आदि में १. भगवद्गीता, ५, १४. २. उपासकदशांग, अध्ययन ६-७; व्याख्याप्रज्ञप्ति, शतक १५; सूत्रकृतांग, २, १, १२, २, ६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002097
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, Agam, Karma, Achar, & Philosophy
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy