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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास वि० सं० १४९६ में, जिनसागरसूरि ने वि० सं० १५०१ में, धर्मदेव ने वि० सं० १५१५ में तथा मेरुसुन्दर ने वि० सं० १५०० से १५५० के बीच एक एक बालावबोध लिखा है।' दाणसीलतवभावणाकुलय ( दानशीलतपभावनाकुलक ) :
वि० सं० १३२७ में स्वर्गवासी होनेवाले तपागच्छ के देवेन्द्रसूरि ने जैन महाराष्ट्री के ८० पद्यों में इसकी रचना की है । इसमें उन्होंने दान, शील, तप एवं भावना का बीस-बीस गाथाओं में वर्णन किया है।
टोकाएं-इसपर १२००० श्लोक-परिमाण एक टीका राजविजयगणी के शिष्य देवविजयगणी ने वि० सं० १६६६ में लिखी है। दूसरी एक ५५०० श्लोकपरिमाण टीका लाभकुशलगणी ने लिखी है। इसकी वि० सं० १७६६ में लिखी एक हस्तलिखित प्रति मिलती है । दाणुवएसमाला ( दानोपदेशमाला ):
जैन महाराष्ट्री में रचित इस कृति के प्रणेता देवेन्द्रसूरि हैं । यह संघतिलकसूरि के पट्टधर शिष्य थे। इसमें दान के बारे में उपदेश दिया गया है ।
टीका-इसपर स्वयं कर्ता ने वि० सं० १४१८ में वृत्ति लिखी है।
दानप्रदीप:
६६६५ श्लोक-परिमाण बारह प्रकाशों में विभक्त यह ग्रन्थ चारित्ररत्नगणी ने वि० सं० १४९९ में चित्रकूट ( चित्तौड़ ) में लिखा है । ये जिनसुन्दरसूरि एवं सोमसुन्दरसूरि के शिष्य थे।
इसके पहले प्रकाश में कहा है कि दान आदि चार प्रकार के धर्मों में दान से ही अवशिष्ट तीन प्रकार के धर्मों की स्थिरता होती है तथा तीर्थंकर की प्रथम देशना भी दान-धर्म के विषय में होती है, अतः दानरूप धर्म ही मुख्य है। दान के तीन प्रकार हैं : १. ज्ञान-दान, २. अभय-दान और ३. उपष्टम्भ
१. इसका गुजराती अनुवाद हीरालाल हंसराज ने प्रकाशित किया है । २. यह कृति हीरालाल हंसराज ने धर्मरत्नमंजूषा एवं लाभकुशलगणीकृत
टीका के साथ तीन भागों में सन् १९१५ में प्रकाशित की है। ३. यह जैन आत्मानन्द सभा ने वि० सं० १९७४ में प्रकाशित किया है।
इसका गुजराती अनुवाद, बारहों प्रकाशों के गुजराती सारांश के साथ, इसी सभा ने वि० सं० १९८० में छपवाया है।
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