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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास टीकाएं-कर्ता ने स्वयं इसपर बृहवृत्ति लिखी है, जिसका प्रारम्भ 'यद्वक्त्राम्भोजव्याप्यः' से होता है । धर्मघोषसूरि के शिष्य विमलगणी मे "वि० सं० १९८४ में इसपर एक टीका लिखी है । चन्द्रप्रभसूरि के शिष्य धर्मघोषसूरि के शिष्य देवभद्र ने भी इसपर ५२७ श्लोक-परिमाण वृत्ति लिखी है । इसके अतिरिक्त इसपर ८००० श्लोक-परिमाण रत्नमहोदधि नाम की एक वृत्ति है, जिसका प्रारम्भ चक्रेश्वर ने किया था और जिसे उनके प्रशिष्य तिलकसूरि ने वि० सं० १२७७ में पूर्ण की थी। इसपर अज्ञातकर्तृक एक वृत्ति और दूसरी एक टीका भी मिलती है। इनमें से वृत्ति १२००० श्लोक-परिमाण है और जैन महाराष्ट्री में रचित कथाओं से विभूषित है। १. सम्यक्त्वकौमुदी :
९९५ श्लोक-परिमाण यह कृति जयशेखर ने वि० सं० १४५७ में रची है। इसमें सम्यक्त्व का निरूपण है। २. सम्यक्त्वकौमुदी :
इसको' रचना जयचन्द्रसूरि के शिष्य जिनहर्षगणी ने वि० सं० १४८७ में को है । यह सात प्रस्तावों में विभक्त है। इसमें सम्यक्त्वी' अर्हहास का चरित्र वर्णित है । इसके अतिरिक्त इसमें सम्यक्त्व, मिथ्यात्व, देशविरति, सर्वविरति, बीस स्थानक, ग्यारह प्रतिमा, आठ दृष्टि इत्यादि विषयों का भी निरूपण आता है । संस्कृत एवं जैन महाराष्ट्री में उद्धरण दिये गये हैं ।। ३. सम्यक्त्वकौमुदी :
यह चैत्र-गच्छ के गुणकरसूरि ने वि० सं० १५०४ में लिखी है। इसका श्लोक-परिमाण १४८८ है । ४. सम्यक्त्वकौमुदी :
इसके कर्ता आगम-गच्छ के सिंहदत्तसूरि के शिष्य सोमदेवसूरि हैं। इन्होंने पद्य में वि० सं० १५७३ में ३३५२ श्लोक-परिमाण इस कृति की रचना की है।
१. यह जैन आत्मानन्द सभा ने वि० सं० १९७० में प्रकाशित की है। २. कर्ता के शिष्य जिनभद्रगणी ने इसपर एक वृत्ति वि० सं० १४९७ में लिखी
थी और वह छपी है, ऐसा जिनरत्नकोश (वि० १, पृ० ४२४ ) में उल्लेख है, किन्तु यह भ्रान्त प्रतीत होता है ।
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