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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास ___ इस प्राभृत की गई गाथाओं का समाधिशतक के साथ साम्य देखा जाता है। यदि इस पाहुड के कर्ता कुन्दकुन्दाचार्य ही हों तो पूज्यपाद ने इसका उपयोग किया है ऐसा कहा जा सकता है।
टोका-श्रुतसागरलिखित इसकी टीका है ।
७. लिंगपाहड ( लिंगप्राभूत )-इसमें २२ गाथाएँ हैं। अन्तिम गाथा में 'लिंगपाहड' नाम देखा जाता है। सच्चा श्रमण किसे कहते हैं, यह इसमें समझाया है । भावलिंगरूप साधुता से रहित द्रव्यलिंग व्यर्थ है ऐसा यहाँ कहा गया है । साधु-वेश में रहकर जो नाचना, गाना इत्यादि कार्य करे वह साधु नहीं, किन्तु, तिथंच है, जो श्रमण अब्रह्म का आचरण करे वह संसार में भटकता है; जो विवाह कराये, कृषिकर्म, वाणिज्य और जीवघात कराये वह द्रव्यलिंगी नरक में जाता है-ऐसे कथन द्वारा इसमें कुसाधु का स्वरूप चित्रित किया है । लिंगविषयक निरूपण, अमुक अंश में भावपाहुड में देखा जाता है। ___टोका-लिंगपाहुड एवं सीलपाहुड पर एक भी संस्कृत टीका यदि रची गई हो तो वह प्रभाचन्द्र की मानी जाती है।
८. सोलपाहुड (शीलप्राभूत )-इस कृति में ४० गाथाएँ हैं। इसमें शील का महत्त्व दिखलाया गया है। प्रथम गाथा में शील के ब्रह्मचर्य के गुण कहने को प्रतिज्ञा है । दूसरी गाथा में कहा है कि शील का ज्ञान के साथ विरोध नहीं है । पांचवीं गाथा में ऐसा उल्लेख है कि चारित्ररहित ज्ञान, दर्शनरहित लिंगग्रहण और संयमरहित तप निरर्थक है । सोलहवीं गाथा में व्याकरण, छन्द, वैशेषिक, व्यवहार और न्यायशास्त्र का उल्लेख है। उन्नीसवें पद्य में जीवदया, दम, सत्य, अचोर्य, ब्रह्मचर्य, सन्तोष, सम्यग्दर्शन, ज्ञान और तप को शील का परिवार कहा है । दशपूर्वी सुरत्तपुत्त (सात्यकिपुत्र) विषयलोलुपता के कारण नरक में गया, ऐसा तीसवीं गाथा में कहा है ।
इस प्रकार आठों पाहुडों का संक्षिप्त परिचय हुआ। ये कुन्दकुन्दरचित ही हैं या नहीं इसका निर्णय करने के लिए विशिष्ट साधन की अपेक्षा है । ये सब कमोबेश रूप में संग्रहात्मक कृतियाँ हैं। इनका समीक्षात्मक संस्करण प्रकाशित होना चाहिए। कई पाहुडों में अपभ्रंश के चिह्न देखे जाते हैं । पाहुडों का उपयोग उत्तरकालीन ग्रन्थकारों ने किया है। जोइन्दु की कृति पाहुडों का स्मरण कराती है। १. अंग्रेजी में परिचय के लिए देखिए-पवयणसार की अंग्रेजी प्रस्तावना,
पृ०२९-३७.
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