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आगमसार और द्रव्यानुयोग परम भक्ति' का निरूपण, निश्चयनय के अनुसार आवश्यक कर्म२, आभ्यन्तर और बाह्य जल्प, बहिरात्मा और अन्तरात्मा, व्यवहार एवं निश्चयनय के अनुसार सर्वज्ञगता, केवलज्ञानी में ज्ञान और दर्शन का एक ही समय में सद्भाव, सिद्ध का स्वरूप तथा सिद्ध होनेवाले की गति और उसका स्थान ।
इसमें प्रतिक्रमण आदि जो आवश्यक गिनाये गये हैं उनकी अपेक्षा मुलाचार में भेद है । उसमें आलोचना का उल्लेख नहीं है और परम भक्ति के बजाय स्तुति एवं वन्दना का निर्देश है।"
९४ वीं गाथा में पडिक्कमण सुत्त नाम की कृति का उल्लेख है । १७ वीं गाथा में कहा है कि इसका विस्तार 'लोयविभाग' से जान लेना चाहिए । सर्वनन्दी आदि द्वारा रचित 'लोयविभाग' नाम की एकाधिक कृतियां हैं सही, परन्तु यहां तो पुस्तकविशेष के बजाय लोकविभाग का सूचक साहित्य अभिप्रेत ज्ञात होता है ।
टीका-पद्मप्रभ मलधारीदेव ने संस्कृत में तात्पर्यवृत्ति नाम की टीका लिखी है। इसमें उन्होंने अमृताशीति, श्रुतबन्धु और मार्गप्रकाश में से उद्धरण दिये हैं । इनके अतिरिक्त अकलंक, अमृतचन्द्र, गुणभद्र, चन्द्रकीर्ति, पूज्यपाद, माधवसेन, वीरनन्दी, समन्तभद्र, सिद्धसेन और सोमदेव का भी उल्लेख आता है।
इस तात्पर्यवृत्ति नाम की टीका में मूल कृति को बारह श्रुतस्कन्धों में विभक्त किया है। इस टीका में प्रत्येक गाथा की गद्यात्मक व्याख्या के अनन्तर पद्य भी आते हैं । ऐसे पद्य कुल ३११ हैं । गुजराती अनुवाद वाली उपर्युक्त आवृत्ति में ऐसे प्रत्येक पद्य को 'कलश' कहा है।
१. इस परमभक्ति के दो प्रकार हैं : १. निर्वाणभक्ति (निर्वाण की भक्ति )
और २. योगभक्ति ( योग की भक्ति )। २. १२१ वी गाथा में निश्चय से कायोत्सर्ग का निरूपण है। ३. केवली सब जानता है और देखता है यह व्यवहारनय की दृष्टि से तथा
केवली अपनी आत्मा को जानता है और देखता है यह निश्चयनय की
दृष्टि से सर्वज्ञता है। ४. इस विषय में सूर्य के प्रकाश और ताप का उदाहरण दिया गया है। ५. देखिए-पवयणसार का अंग्रेजी उपोद्घात, पृ० ४२.
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