SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 167
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५२ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास कता है-ऐसा इसमें ( गा० ७ इत्यादि ) कहा गया है । इस कृति में कई विषयों की पुनरावृत्ति देखी जाती है । इसमें अधोलिखित विषय आते हैं : __ जीव के स्वसमय और परसमय की विचारणा,' ज्ञायक भाव अप्रमत्त या प्रमत्त नहीं हैं ऐसा विधान, भूतार्थ अर्थात् शुद्ध नय द्वारा जीव आदि नौ तत्त्वों का बोध ही सम्यग्दर्शन, जो नय आत्मा को बन्धरहित, पर से अस्पृष्ट, अनन्य, नियत, विशेषरहित और असंयुक्त देखता है वह शुद्ध नय, साधु द्वारा रत्नत्रय की आराधना, प्रत्याख्यान का ज्ञान के रूप में उल्लेख, भूतार्थ का आश्रय लेनेवाला जीव ही सम्यग्दृष्टि, कर्म के क्षयोपशम के अनुसार ज्ञान में भेद, व्यवहारनय के अनुसार सब अध्यवसाय आदि का जीव के रूप में निर्देश, जीव का अरस, अरूप आदि वर्णन, बन्ध का कारण, जीव के परिणामरूप निमित्त से पुद्गलों का कर्म के रूप में परिणमन, जीव का पुद्गल-कर्म के निमित्त से परिणमन, निश्चयनय के अनुसार आत्मा का अपना ही कर्तृत्व और भोक्तृत्व, मिथ्यात्व, योग, अविरति और अज्ञान का अजीव एवं जीव के रूप में उल्लेख, पुद्गल-कर्म का कर्ता ज्ञानी या अज्ञानी नहीं है ऐसा कथन, बन्ध के मिथ्यात्व आदि चार हेतु, इन हेतुओं के मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगिकेवली तक के तेरह भेद, सांख्यदर्शन की पुरुष एवं प्रकृतिविषयक मान्यता का निरसन, जीव में उसके प्रदेशों के साथ कर्मबद्ध एवं स्पृष्ट हैं ऐसा व्यवहारनय का मन्तव्य और अबद्ध एवं अस्पृष्ट हैं ऐसा निश्चयनय का मन्तव्य, कर्म के शुभ एवं अशुभ दो प्रकार, ज्ञानी को द्रव्य-आस्रवों का अभाव, संवर का उपाय, ज्ञान और वैराग्य को शक्ति, सम्यग्दृष्टि के निःशंकित आदि आठ गुणों का निश्चयनय के अनुसार निरूपण, अज्ञानमय अध्यवसाय का बन्ध के कारण के रूप में निर्देश, मात्र व्यवहारनय के आलम्बन की निरर्थकता, अभव्य के धर्माचरण के हेतु के रूप में भोग की प्राप्ति, आत्मा का प्रज्ञा के द्वारा ग्रहण, विषकुम्भ के प्रतिक्रमण आदि और अमृतकुम्भ के अप्रतिक्रमण आदि आठ-आठ प्रकार, आत्मा का कथंचित् कर्तृत्व और भोक्तृत्व, खड़िया मिट्टी के दृष्टान्त द्वारा निश्चयनय और व्यवहारनय का स्पष्टीकरण, द्रव्यलिंग के स्वीकार का कारण व्यवहारनय तथा अज्ञानियों की--आत्मा का सत्य स्वरूप नहीं जाननेवालों की 'जीव किसे कहना' इस विषय में भिन्न-भिन्न मान्यताएँ ( जैसे-कोई अज्ञानी अध्यवसाय को, कोई कर्म को, कोई अध्यव१. यहाँ इन दोनों शब्दों का आध्यात्मिक दृष्टि से अर्थ किया गया है, परन्तु सन्मतिप्रकरण ( का० ३, गा० ४७ और ६७ ) में इनका 'दर्शन' के अर्थ में प्रयोग हुआ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002097
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, Agam, Karma, Achar, & Philosophy
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy