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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
एत्थ य जोगवयोगाणमग्गणा बंधगा य वत्तव्वा । तह बंधियव्व य बंधहेयवो बंधविहिणो य ॥ ३ ॥ ग्रन्थ के अन्त में निम्न गाथा है : सुयदेविपसायाओ पगरणमेयं समासओ भणियं ।
समयाओ चंदरिसिणा समइ विभवाणुसारेण ॥ अर्थात् श्रुतदेवी की कृपा से चन्द्रर्षि ने अपनी बुद्धि के वैभव के अनुसार सिद्धान्त में से यह प्रकरण संक्षेप में कहा है।
इस प्रकार ग्रन्थकार ने ग्रन्थ के अन्त में अपना नाम-निर्देश किया है। पंचसंग्रह की व्याख्याएँ :
पंचसंग्रह की दो महत्त्वपूर्ण टीकाएँ प्रकाशित हैं : स्वोपज्ञ वृत्ति एवं मलयगिरिकृत टीका । स्वोपज्ञ वृत्ति नौ हजार श्लोकप्रमाण तथा मलयगिरिकृत टीका अठारह हजार श्लोकप्रमाण है ।
स्वोपज्ञ वृत्ति के अन्त में आचार्य ने अपने को पाषि का पादसेवक अर्थात् शिष्य बताया है :
माधुर्यस्थैर्ययुक्तस्य दारिद्रयाद्रिमहास्वरोः । पावर्षेः पादसेवातः कृतं शास्त्रमिदं मया ॥ ५ ॥ मलयगिरिकृत टीका का अन्त इस प्रकार है : जयति सकलकर्मक्लेशसंपर्कमुक्त
स्फुरितविततविमलज्ञानसंभारलक्ष्मीः । प्रतिनिहतकुतीर्थाशेषमार्गप्रवादः,
शिवपदमधिरूढो वर्धमानो जिनेन्द्रः ॥ १ ॥ गणधरदृब्धं जिनभाषितार्थमखिलगमभङ्गनयकलितम् । परतीर्थानुमतमादृतिमभिगन्तुं शासनं जैनम् ॥ २ ॥ बह्वर्थमल्पशब्द प्रकरणमेतद्विवृण्वतामखिलम् । यदवापि मलयगिरिणा सिद्धिं तेनाश्नुतां लोकः ॥ ३ ।। अर्हन्तो मंगलं सिद्धा मंगलं मम साधवः।
मंगलं मंगलं धर्मस्तन्मंगलमशिश्रियम् ॥ ४ ॥ प्राचीन षट् कर्मग्रन्थ :
देवेन्द्रसूरिकृत कर्मग्रन्थ नव्य कर्मग्रन्थों के रूप में प्रसिद्ध हैं जबकि तदा:धारभूत पुराने कर्मग्रन्थ प्राचीन कर्मग्रन्थ कहे जाते हैं। इस प्रकार के प्राचीन
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