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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास ५. उदीरणाकरण-उदीरणा का अर्थ है योगविशेष से कर्मप्रदेशों को उदय में लाना। इसका आचार्य ने लक्षण, भेद, साद्यादि, स्वामित्व, प्रकृतिस्थान
और प्रकृतिस्थान-स्वामी इन छ: द्वारों से विवेचन किया है। उदीरणा के विविध दृष्टियों से दो, चार, आठ एवं एक सौ अठावन भेद किये गये हैं। इनमें प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश इन चार भेदों को प्रधानता दी गई है।
६. उपशमनाकरण-इस प्रकरण में ग्रन्थकार ने कर्मों की उपशमना अर्थात् उपशान्ति का विचार किया है। उपशम की स्थिति में कर्म थोड़े समय के लिए दबे रहते हैं, नष्ट नहीं होते। उपशमनाकरण के निम्नोक्त आठ द्वार हैं : १. सम्यक्त्व की उत्पत्ति, २. देशविरति की प्राप्ति, ३. सर्वविर ति की प्राप्ति, ४. अनन्तानुबन्धी कषाय की वियोजना-विनाश, ५. दर्शनमोहनीय की क्षपणा, ६. दर्शनमोहनीय की उपशमना, ७. चारित्रमोहनीय की उपशमना, ८. देशोपशमना।२ प्रस्तुत प्रकरण आध्यात्मिक विकास की विविध भूमिकाओं-गुणस्थानों की दृष्टि से विशेष महत्त्वपूर्ण है । उपशमनाकरण की चार गाथाएँ ( क्रमांक २३ से २६ ) कषायप्राभूत की चार गाथाओं ( क्रमांक १००, १०३, १०४, १०५ ) से मिलती-जुलती हैं।
७-८. निषत्तिकरण और निकाचनाकरण-भेद और स्वामी की दृष्टि से निधत्तिकरण और निकाचनाकरण देशोपशमना ( आंशिक उपशमना ) के तुल्य हैं। इनमें भेद यह है कि निधत्ति में संक्रमकरण नहीं होता जबकि निकाचना में संक्रम के साथ ही साथ उद्वर्तना एवं अपवर्तना की भी प्रवृत्ति नहीं होती:
देसोवसमणतुल्ला होइ निहत्ती निकाइया नवरं ।
संकमणं पि निहत्तीइ नत्थि सेसाणवियरस्सं ॥ १ ॥ ९. उदयावस्था-उदय और उदीरणा सामान्यतया समान हैं किन्तु ज्ञानावरणादि ४१ प्रकृतियों की दृष्टि से इन दोनों में कुछ विशेषता है। ये प्रकृतियाँ इस प्रकार हैं : ५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, ५ अन्तराय, १ संज्वलनलोभ, ३ वेद, २ सम्यक् दृष्टि और मिथ्या दृष्टि, ४ आयु, २ वेदनाएं, ५ निद्राएं, १० नामकर्म की प्रकृतियाँ-मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय, यशःकोति, उच्चगोत्र और तीर्थंकर। इसी प्रकार स्थिति, अनुभाग और प्रदेश की दृष्टि से भी दोनों में कुछ अन्तर है। १. गा० १-८९. २. गा० १-७१. ३. गा० १-३२.
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