________________
११८
जैन साहित्य का बृहद् इतिहास हुई सिद्धों के अनन्तवें भाग के बराबर होती हैं किन्तु प्रदेशसंख्या में क्रमशः हीन होती हैं।' आगे आचार्य ने स्पर्धक, अन्तर, स्थान, कंडक, वृद्धिषट्क, हानिषटक, अनुभागस्थान में अवस्थित कालादिक अनुभागस्थानों का अल्पबहुत्व, स्पर्शनाकाल का अल्पबहुत्व, अनुभाग की तीव्रता-मन्दता आदि का विवेचन किया है।
स्थितिबन्ध का व्याख्यान करते हुए ग्रन्थकार ने स्थितिबन्ध के चार अनुयोगों का स्वरूप समझाया है : १. स्थितिस्थान, २. निषेक, ३. अबाधाकंडक और ४. अल्पबहुत्व । स्थितिस्थान की प्ररूपणा में उत्कृष्ट स्थितिबन्ध, उत्कृष्ट आयुष्यबन्ध, उत्कृष्ट अबाधा, जघन्य स्थितिबन्ध, जघन्य आयुष्यबन्ध और जघन्य अबाधा का विचार किया गया है। निषेक का अनन्तरोपनिषा तथा परम्परोपनिधा की दृष्टि से निरूपण किया गया है। अबाधा से ऊपर की स्थिति निषेक कहलाती है। अबाधाकंडक की प्ररूपणा में बताया गया है कि चार प्रकार की आयु को छोड़कर शेष सर्व कर्म-प्रकृतियों को अबाधा का एक-एक समय न्यून होने के साथ स्थितिबन्ध में पल्योपम के असंख्यातवें भाग के बराबर एक-एक कंडक कम होता जाता है । अंगुल के असंख्यातवें भाग में जितने बाकाशप्रदेश होते हैं उतने अनुभागस्थानों का समुदाय कंडक कहलाता है। अल्पबहुत्व का निरूपण करते हुए आचार्य ने बन्ध, अबाधा, कंडक आदि दस स्थानों के अल्पबहुत्व का विचार किया है। यहाँ तक बन्धनकरण का अधिकार है।
२. संक्रमकरण-संक्रम चार प्रकार का है : १. प्रकृतिसंक्रम, २. स्थितिसंक्रम, ३. अनुभागसंक्रम और ४. प्रदेशसंक्रम । जीव जब-जब जिस-जिस कर्मप्रकृति के बंधने के योग्य योग अथवा परिणाम में प्रवर्तित होता है तब-तब कर्मवर्गणाएँ ( कर्मपुद्गल ) भी उस कर्मप्रकृति के रूप में परिणत होती हैं। दूसरे शब्दों में जिस कर्मप्रकृति के बन्ध में जीववीर्य जिस समय प्रवर्तित होता है उस समय वह प्रकृति बंधती है। इतना ही नहीं, उस बंधने वाली प्रकृति के अतिरिक्त पूर्वबद्ध प्रकृति के प्रदेशादि भी उस बध्यमान प्रकृति के रूप में परिणत हो जाते हैं । इस प्रकार बध्यमान प्रकृति में बद्ध प्रकृति का तद्रूप हो जाना संक्रम अथवा संक्रमण कहलाता है। उदाहरणार्थ साता वेदनीय कर्मप्रकृति का बंध करने वाला जीव असाता वेदनीय को साता के रूप में परिणत कर देता है अथवा असाता वेदनीय का बंध करने वाला जीव साता को असातारूप बना
१. गा. ३०.
२. गा. ३१-६७.
३. गा. ६८-१०२.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org