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अन्य कर्मसाहित्य
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बराबर अवगाहना वाली हैं ।" एक जीवप्रदेशावगाही अर्थात् जीव के एक प्रदेश में रहे हुए एक ग्रहणयोग्य द्रव्य अर्थात् पुद्गल - परमाणु को भी जीव अपने सब प्रदेशों से ग्रहण करता है । इसी प्रकार सर्व जीवप्रदेशों में अवगाहित ग्रहणयोग्य सर्वं पुद्गल -स्कन्धों को भी जीव अपने समस्त प्रदेशों से ग्रहण करता है । यहाँ तक योग का अधिकार है ।
पुद्गलद्रव्यों का परस्पर सम्बन्ध स्नेह अर्थात् स्निग्धस्पर्श और रूक्षस्पर्श से होता है । प्रस्तुत ग्रन्थ में तीन प्रकार की स्नेह-प्ररूपणा की गई है : १. स्नेहप्रत्ययस्पर्धक प्ररूपणा, २. नामप्रत्ययस्नेहस्पर्धक प्ररूपणा और ३. योगप्रत्ययस्नेहस्पर्धक प्ररूपणा । स्नेहप्रत्ययस्पर्धक एक है । उसमें स्नेहाविभाग वर्गणाएँ अनन्त हैं । इसमें अल्प स्नेहवाले पुद्गल अधिक और अधिक अधिक स्नेहवाले पुद्गल अल्प- अल्प होते हैं । स्नेहप्रत्ययस्पर्धक की ही भाँति नामप्रत्यय एवं योगप्रत्ययस्नेहस्पर्धक में भी अविभाग वर्गणाएँ अनन्त हैं । 3
कर्म की मूलप्रकृतियों और उत्तरप्रकृतियों का भेद अनुभागविशेष अर्थात् रसविशेष से होता है । अनुभागविशेष का कारण स्वभावभेद है । अविशेषित रसप्रकृतिवाला बन्ध प्रकृतिबन्ध कहलाता है । मूलप्रकृति के कर्मप्रदेश उत्तरप्रकृतियों में किस प्रकार विभक्त होते हैं, इसका संक्षेप में वर्णन करने के बाद आचार्य ने प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध की चर्चा समाप्त की है । तदनन्तर अनुभागबन्ध ( रसबन्ध ) और स्थितिबन्ध का वर्णन किया गया है ।
जीव जिन कर्मस्कन्धों को ग्रहण करता है उनमें एक सरीखा रस उत्पन्न नहीं करता अपितु भिन्न-भिन्न प्रकार का रस उत्पन्न करता है । इसी का नाम अनुभागबन्ध है । रसविभाग की विषमता का कारण राग-द्वेष की न्यूनाधिकता है । सबसे अल्प रसविभाग वाले कर्मप्रदेश प्रथम वर्गणा - जघन्य रसवर्गणा के अन्तर्गत समाविष्ट होते हैं । ये वर्गणाएँ एक-एक रसविभाग से क्रमशः बढ़ती
१. परमाणु संखऽसंखाणंत पएसा भव्वतगुणा ।
सिद्धाणणंतभागो आहारगवग्गणा तितणू ॥ १८ ॥ अग्गहणंतरियाओ तेयगभासामणे य कम्मे य । धुवअधुवअच्चित्ता सुन्नाचउअंतरेसुपि ॥ १९ ॥ पत्तेयगतणुसुबायरसुहुमनिगोए तहा महाखंधे । गुणनिफन्न सामा असंखभागंगुलवगाहो ॥ २० ॥
२. गा. २१.
३. गा. २२-३.
४. गा. २४.
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५. गा. २५-८.
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