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________________ अन्य कर्मसाहित्य ११५ श्रमण के पूर्ववर्ती अथवा समकालीन रहे हों। सम्भवतः ये दशपूर्वधर भी हों। इन सब सम्भावनाओं पर निश्चित प्रकाश डालने वाली प्रामाणिक सामग्री का हमारे पास अभाव है। इतना निश्चित है कि शिवशर्मसूरि एक प्रतिभासम्पन्न एवं बहुश्रुत विद्वान् थे। उनका कर्मविषयक ज्ञान बहुत गहरा था। कर्मप्रकृति के अतिरिक्त शतक (प्राचीन पंचम कर्मग्रन्थ ) भी शिवशर्मसूरि की ही कृति मानी जाती है। एक मान्यता ऐसी भी है कि सप्ततिका ( प्राचीन षष्ठ कर्मग्रन्थ ) भी इन्हीं को कृति है। दूसरी मान्यता के अनुसार सप्ततिका चन्द्रषिमहत्तर की कृति कही जाती है। कर्मप्रकृति में ४७५ गाथाएं हैं। ये अग्रायणीय नामक द्वितीय पूर्व के आधार पर संकलित की गई हैं । इस ग्रन्थ में आचार्य ने कर्मसम्बन्धी बन्धनकरण, संक्रमकरण, उद्वर्तनाकरण, अपवर्तनाकरण, उदीरणाकरण, उपशमनाकरण, निधतिकरण और निकाचनाकरण इन आठ करणों एवं उदय और सत्ता इन दो अवस्थाओं का वर्णन किया है। करण का अर्थ है आत्मा का परिणामविशेष अथवा वीर्यविशेष । ग्रन्थ के प्रारम्भ में आचार्य ने मंगलाचरण के रूप में भगवान् महावीर को नमस्कार किया है एवं कर्माष्टक के आठ करण, उदय और सत्ता इन दस विषयों का वर्णन करने का संकल्प किया है : सिद्धं सिद्धत्थसुयं वंदिय निद्धोयसव्वकम्ममलं । कम्मठ्ठगस्स करणट्ठमुदयसंताणि वोच्छामि ॥ १ ॥ द्वितीय गाथा में आठ करण के नाम बताये गये हैं जो इस प्रकार हैं : (इ) चणि तथा मलयगिरि एवं यशोविजयविहित वृत्तियों सहित मुक्ताबाई ज्ञानमन्दिर, खूबचंच पानाचंद, डभोई ( गुजरात ), सन् १९३७. (ई) पं० चंदुलाल नानचंद्रकृत गुज. अनु. सहित-माणेकलाल चुनीलाल, राजनगर ( अहमदाबाद माण्डवी पोलान्तर्गत नागजीभूधर की पोल), सन् १९३८. २. यशोविजय की वृत्ति में उल्लिखित, पृ० २. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002097
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, Agam, Karma, Achar, & Philosophy
File Size14 MB
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