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________________ . .. . . “११४ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास ९. भावप्रकरण* विजयविमलगणि गा. ३० वि. सं. १६२३ , स्वो. वृत्ति ३२५ १०. बन्धहेतूदयत्रिभङ्गी- हर्षकुलगणि गा. ६५ विक्रम की १६ वीं शती " वृत्ति * वानरर्षिगणि ११५० वि. सं. १६०२ ११. बन्धोदयसत्ताप्रकरण* विजयविमलगणि गा. २४ विक्रम की १७ वीं शती का प्रारम्भ , स्वो. अवचूरि* ३०० १२. कमसंवेद्यभङ्गप्रकरण* देवचन्द्र ४०० “१३. भूयस्कारादिविचार- लक्ष्मी विजय गा. ६० विक्रम की प्रकरण १७ वीं शती १४. संक्रमकरण* . प्रेमविजयगणि ..... वि. सं. १९८५ प्रस्तुत सूची में निर्दिष्ट कमंसाहित्य का ग्रन्थमान लगभग सात लाख श्लोक है । इसमें से केवल दिगम्बरीय कर्मसाहित्य का प्रमाण लगभग पाँच लाख श्लोक है। महाकर्मप्रकृतिप्राभृत और कषायप्राभृत जोकि दिगम्बर सम्प्रदाय के आगमग्रन्थ हैं और जिनसे सम्बन्धित टीकाएँ भी आगमिक साहित्य के अन्तर्गत ही गिनी जाती हैं, दिगम्बरीय साहित्य का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अंश है। इस साहित्य पर तत्सम्बन्धी पिछले प्रकरणों में पर्याप्त प्रकाश डाला जा चुका है अतः प्रस्तुत प्रकरण में शेष दिगम्बरीय कर्मसाहित्य का ही परिचय प्रस्तुत किया जाएगा। ग्रन्थ-बाहुल्य को दृष्टि में रखते हुए पहले श्वेताम्बराचार्यकृत कर्मसाहित्य के कतिपय महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का परिचय देना अनुचित न होगा। श्वेताम्बरीय कर्मसाहित्य का प्राचीनतम स्वतन्त्र ग्रन्थ शिवशर्मसूरिकृत कर्मप्रकृति है। यहाँ सर्वप्रथम इसी का परिचय दिया जाता है। शिवशर्मसूरिकृत कर्मप्रकृति : कर्मप्रकृति' के प्रणेता शिवशर्मसूरि२ का समय अनुमानतः विक्रम की पाँचवीं शताब्दी माना जाता है। कदाचित् ये आगमोद्धारक देवद्धिगणिक्षमा १. ( अ ) मलयगिरि एवं यशोविजयविहित वृत्तियों सहित-जैनधर्म प्रसारक सभा, भावनगर, सन् १९१७. (आ) मलयगिरिकृत वृत्तिसहित-देवचंद लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, बम्बई, सन् १९१२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002097
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, Agam, Karma, Achar, & Philosophy
File Size14 MB
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