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________________ कषायप्राभृत की व्याख्याएँ १०१ निष्पन्न ( अर्थानुसारी ) है जबकि कषायप्राभृत नाम नय-निष्पन्न ( नयानुसारी) है । प्रेय का नाम, स्थापना, द्रव्य और भावपूर्वक निक्षेप करना चाहिए। नैगमनय, संग्रहनय और व्यवहारनय सब निक्षेपों को स्वीकार करते हैं। ऋजुसूत्रनय स्थापना के सिवाय सब निक्षेपों को स्वीकार करता है। नामनिक्षेप और भावनिक्षेप शब्दनय के विषय हैं । द्वेष का निक्षेप भी चार प्रकार का है : नामद्वेष, स्थापनाद्वेष, द्रव्यद्वेष और भावद्वेष । कषाय का निक्षेप आठ प्रकार का है : नामकषाय, स्थापनाकषाय, द्रव्यकषाय, प्रत्ययकषाय, समुत्पत्तिकषाय, आदेशकषाय, रसकषाय और भावकषाय । प्राभृत का निक्षेप नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव के भेद से चार प्रकार का है ।' 'प्राभृत' की निरुक्ति क्या है ? जो पदों से फुड-स्फुट : अर्थात् संपृक्त, आभृत या भरपूर हो उसे पाहुड-प्राभृत कहते हैं : पाहुडेत्ति का णिरुत्तो ? जम्हा पदेहि पुदं ( फुडं ) तम्हा पाहुडं।२ द्वेष और प्रेय-नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव चारों गतियों के जीव द्वेष के स्वामी होते हैं। इसी प्रकार प्रेय के भी स्वामी जानने चाहिये। द्वेष जघन्य एवं उत्कृष्ट काल की अपेक्षा से अन्तर्मुहूर्त तक होता है । इसी प्रकार प्रेय का भी काल जानना चाहिये । यह कथन ओघ अर्थात् सामान्य की दृष्टि से है। आदेश अर्थात् विशेष की दृष्टि से नारकियों में प्रेय और द्वेष जघन्य काल की अपेक्षा से एक समय तथा उत्कृष्ट काल की अपेक्षा से अन्तर्मुहूतं तक होता है । इसी प्रकार शेष अनुयोगद्वार जानने चाहिये । प्रकृतिविभक्ति-कषायप्राभत की गाथा 'पयडीए मोहणिज्जा विहत्ती..." का व्याख्यान करते हुए चूर्णिकार ने बताया है कि प्रकृतिविभक्ति दो प्रकार की है : मूलप्रकृतिविभक्ति और उत्तरप्रकृतिविभक्ति । मूलप्रकृतिविभक्ति के स्वामित्व, काल, अन्तर आदि आठ अनुयोगद्वार हैं। उत्तरप्रकृतिविभक्ति के दो भेद हैं : एकैकउत्तरप्रकृतिविभक्ति और प्रकृतिस्थानउत्तरप्रकृतिविभक्ति । एकैकउत्तरप्रकृतिविभक्ति के स्वामित्व आदि ग्यारह अनुयोगद्वार हैं। प्रकृतिस्थानउत्तरप्रकृतिविभक्ति के स्वामित्व आदि तेरह अनुयोगद्वार हैं। स्थितिविभक्ति-प्रकृतिविभक्ति की ही भाँति स्थितिविभक्ति भी दो प्रकार की है : मूलप्रकृतिस्थितिविभक्ति और उत्तरप्रकृतिस्थितिविभक्ति । इन दोनों प्रकारों के सर्वविभक्ति, नोसर्व विभक्ति, उत्कृष्टविभक्ति, अनुत्कृष्टविभक्ति आदि चौबीस-चौबीस अनुयोगद्वार हैं।" १. वही, पृ० १६-२८. २. वही, पृ० २९. ३. वही, पृ० ४०-४१. ४. वही, पृ० ४९-५७. ५. वही, पृ० ८०-९१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002097
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, Agam, Karma, Achar, & Philosophy
File Size14 MB
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