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________________ ९७ कषायप्राभूत नियमतः मुक्त हो जाता है। मनुष्यों में क्षीणमोह नियमतः संख्येय सहस्र होते हैं। शेष गतियों में क्षीणमोह नियमतः असंख्येय होते हैं।' संयमासंयमलब्धि और चारित्रलब्धि अर्थाधिकारों में एक ही गाथा है जिसमें यह बताया गया है कि संयमासंयम अर्थात् देशसंयम तथा चारित्र अर्थात् सकलसंयम की प्राप्ति, उत्तरोत्तर वृद्धि एवं पूर्वबद्ध कर्मों की उपशामना का विचार करना चाहिए। चारित्रमोहोपशामना अर्थाधिकार में निम्नोक्त प्रश्नों का समाधान कर लेने को कहा गया है : उपशामना कितने प्रकार की होती है ? उपशम किस-किस कर्म का होता है ? कौन-कौन-सा कर्म उपशान्त रहता है ? कौन-कौन-सा कर्म अनुपशान्त रहता है ? स्थिति, अनुभाग एवं प्रदेशाग्र का कितना भाग उपशमित होता है, कितना भाग संक्रमित एवं उदीरित होता है तथा कितना भाग बँधता है ? कितने समय तक उपशमन होता है ? कितने समय तक संक्रमण होता है ? कितने काल तक तक उदीरणा होती है ? कौन-सा कर्म कितने समय तक उपशान्त अथवा अनुपशान्त रहता है ? कौन-सा करण व्युच्छिन्न होता है ? कौन-सा करण अव्युच्छिन्न रहता है ? कौन-सा करण उपशान्त होता है ? कौन-सा करण अनुपशान्त रहता है ? प्रतिपात कितने प्रकार का होता है ? प्रतिपात किस कषाय में होता है ? प्रतिपतित होता हुआ जीव किन कमाशों का बन्धक होता है ? चारित्रमोहक्षपणा अर्थाधिकार में ग्रन्थकार ने बताया है कि संक्रमण-प्रस्थापक के मोहनीय कर्म की दो स्थितियाँ होती हैं जिनका प्रमाण मुहूर्त से कुछ कम होता है । तत्पश्चात् नियम से अन्तर होता है। जो कांश क्षीण स्थिति वाले हैं उनका जीव दोनों ही स्थितियों में वेदन करता है। जिनका वह वेदन नहीं करता उन्हें तो द्वितीय स्थिति में ही जानना चाहिए । संक्रमण-प्रस्थापक के पूर्वबद्ध कर्म मध्यम स्थितियों में पाये जाते हैं। अनुभागों में सातावेदनीय, शुभनाम और उच्चगोत्र कर्म उत्कृष्ट रूप से पाये जाते हैं, इत्यादि । १. गा० ९१-९४. इस प्रकरण की गा० १००, १०३, १०४ व १०५ शिवशर्मकृत कर्मप्रकृति के उपशमनाकरण प्रकरण की गा० २३-२६ से मिलती-जुलती हैं। २. गा० ११०-११४. ३. गा० ११५. ४. गा० ११६-१२०. ५. गा० १२५-२३३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002097
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, Agam, Karma, Achar, & Philosophy
File Size14 MB
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