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________________ 'निय क्तियाँ और नियक्तिकार ध्यान में रखते हुए ठीक-ठीक अर्थ का निर्णय करना और उस अर्थ का सूत्र के शब्दों से संबन्ध स्थापित करना-यही नियुक्ति का प्रयोजन है। नियुक्तियों की रचना प्रारंभ करते हुए आचार्य भद्रबाहु ने सर्वप्रथम पाँच प्रकार के ज्ञान का विवेचन किया है । बाद के टीकाकारों ने ज्ञान को मंगलरूप मानकर यह सिद्ध किया है कि इन गाथाओं से मंगल का प्रयोजन भी सिद्ध होता है : आगे आचार्य ने यह बताया है कि इन पाँच ज्ञानों में से प्रस्तुत अधिकार श्रुतज्ञान का ही है क्योंकि यही ज्ञान ऐसा है जो प्रदीपवत् स्व-पर-प्रकाशक है । यही कारण है कि श्रुतज्ञान के आधार से हो मति आदि अन्य ज्ञानों का एवं स्वयं श्रुत का भी निरूपण हो सकता है । इसके बाद नियुक्तिकार ने सामान्यरूप से सभी तीर्थंकरों को नमस्कार किया है । फिर वर्तमान तीर्थ के प्रणेता-प्रवर्तक भगवान् महावीर को नमस्कार किया है । तदुपरान्त महावीर के प्रमुख शिष्य एकादश गणधरों को नमस्कार करके गुरुपरंपरारूप आचार्यवंश और अध्यापकपरंपरारूप उपाध्यायवंश को नमस्कार किया है। इसके बाद आचार्य ने यह प्रतिज्ञा की है कि इन सबने श्रुत का जो अर्थ बताया है उसकी मैं नियुक्ति अर्थात् श्रुत के साथ अर्थ को योजना करता हूँ। इसके लिए निम्नांकित श्रुतग्रंथों को लेता हैं : १. आवश्यक, २. दशकवालिक, ३. उत्तराध्ययन, ४. आचारांग, ५. सूत्रकृतांग, ६. दशाश्रुतस्कन्ध, ७. कल्प ( बृहत्कल्प ), ८. व्यवहार, ९. सूर्यप्रज्ञप्ति, १०. ऋषिभाषित ।२ ___ आचार्य भद्रबाहु की इन दस नियुक्तियों का रचना-क्रम भी वही होना चाहिए जिस क्रम से नियुक्ति-रचना को प्रतिज्ञा की गई है । इस कथन को पुष्टि के लिए कुछ प्रमाण नीचे दिये जाते हैं : १. उत्तराध्ययन-नियुक्ति में विनय का व्याख्यान करते समय लिखा है कि इसके विषय में पहले कह दिया गया है। यह कथन दशवैकालिक के 'विनयसमाधि नामक अध्ययन को नियुक्ति को लक्ष्य में रखकर किया गया है । इससे यह सिद्ध होता है कि उत्तराध्ययन-नियुक्ति के पूर्व दशवकालिक-नियुक्ति की रचना हुई। २. 'कामा पुबुद्दिट्ठा' ( उत्तराध्ययननियुक्ति, गा. २०८ ) में यह सूचित किया गया है कि काम के विषय में पहले विवेचन हो चुका है । यह विवेचन दशवैकालिकनियुक्ति की गा. १६१-१६३ में है। इससे भी यही बात सिद्ध होती है। १. आवश्यक नियुक्ति, गा. ८८. २. वही, गा. ७९-८६. ३. गणधरवाद, प्रस्तावना, पृ० १५-६. ४. उत्तराध्ययननियुक्ति, गा. २९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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