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________________ ४२७ अन्य टीकाएँ प्रविहिता यद्यपि, बह व्यः सन्त्यस्य वृत्तयो रुचिराः। पद्यनिबद्धकाथ, तदपि क्रियते प्रयत्नोऽयम् ॥४॥ दशवैकालिकदीपिका : प्रस्तुत दीपिका' खरतरगच्छीय सकलचन्द्रसूरि के शिष्य समयसुन्दरसूरि की शब्दार्थ-वृत्तिरूप कृति है । दीपिका की भाषा सरल एवं शैली सुबोध है । प्रारम्भ में दीपिकाकार ने स्तम्भनाधीश (पार्श्वनाथ) को नमस्कार किया है तथा दशवकालिक मूत्र का शब्दार्थ लिखने का संकल्प किया है : स्तम्भनाधीशमानम्य गणिः समयसुन्दरः। दशवैकालिके सत्रे शब्दार्थं लिखति स्फुटम् ।। दीपिका के अन्त में आचार्य ने हरिभद्रकृत टीका को विषम बताते हुए अपनी टीका को सुगम बताया है। यह टीका वि० सं० १६९१ में स्तम्भतीर्थ (खंभात) में पूर्ण हुई थी। इसका ग्रन्थमान ३४५० श्लोकप्रमाण है : हरिभद्रकृता टीका वर्तते विषमा परम् । मया तु शोघ्रबोधाय शिष्याथं सुगमा कृता ॥१॥ चन्द्रकुले श्रोखरतरगच्छे जिनचन्द्रसूरिनामानः। जाता युगप्रधानास्तच्छिष्यः सकलचन्द्रगणिः ।।२।। तच्छिष्यसमयसुन्दरगणिना च स्तम्भतीर्थपुरे चक्रे । दशवैकालिकटोका शशिनिधिशृङ्गारमित वर्षे ।।३।। ...... ....." शब्दार्थवृत्तिटोकायाः श्लोकमानमिदं स्मृतम् । सहस्रत्रयमग्रे च पुनः सार्धचतुःशतम् ॥७॥ प्रश्नव्याकरण-सुखबोधिकावृत्ति : प्रस्तुत वृत्ति तपागच्छीय ज्ञानविमलसूरि की कृति है। यह विस्तार में अभयदेवसूरिकृत वृत्ति से बड़ी है । जिन पदों का व्याख्यान अभयदेवसूरि ने सरल समझ कर छोड़ दिया था उनका भी प्रस्तुत वृत्ति में व्याख्यान किया गया है । वृत्तिकार ने अपने मन्तव्य की पुष्टि के लिए यत्र-तत्र अनेक प्रकार के उद्धरण भी दिये हैं। मूल ग्रंथ को हर प्रकार से सरल एवं सुबोध बनाने का प्रयत्न किया है । इस दृष्टि से प्रस्तुत वृत्ति को सुखबोधिका कहना उचित ही है । प्रारंभ १. (अ) भीमसा माणेक, बम्बई, सन् १९००. (आ) हीरालाल हंसराज, जामनगर, सन् १९१५. (इ) जिनयशःसूरि ग्रन्थमाला, खंभात, वि० सं० १९७५. २. मुक्तिविमल जैन ग्रंथमाला, अहमदाबाद, वि० सं० १९९५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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