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________________ जैन साहित्य का बृहद इतिहास श्रीमत्सुधर्मगणभृत्प्रमुखं , नतोऽस्मि, तं सूरिसङघमनघं स्वगुरूश्च भक्त्या ॥२॥ आवश्यकप्रतिनिबद्धगभीरभाष्य पीयूषजन्मजलधिगुणरत्नराशिः । ख्यातः क्षमाश्रमणतागुणतः क्षितो यः, सोऽयं गणिविजयते जिनभद्रनामा ॥३॥ यस्याः प्रसादपरिवर्धितशद्धबोधाः, पारं व्रजन्ति सुधियः श्रुततोयराशेः । सानुग्रहा मयि समीहितसिद्धयेऽस्तु, सर्वज्ञशासनरता श्रुतदेवताऽसौ ॥ ४ ॥ विशेषावश्यकभाष्य क्या है एवं उसकी प्रस्तुत वृत्ति की क्या आवश्यकता है, "इसका समाधान करते हुए टीकाकार ने बताया है कि सामायिकादि षडध्ययनात्मक श्रुतस्कन्धरूप आवश्यक की अर्थतः तीथंकरों ने एवं सूत्रतः गणधरों ने रचना की। इसको गंभीरार्थता एवं नित्योपयोगिता को ध्यान में रखते हुए चतुर्दश पूर्वधर श्रीमद् भद्रबाहुस्वामी ने इस सूत्र की व्याख्यानरूप नियुक्ति बनाई । इस नियुक्ति में भी सामायिकाध्ययन-नियुक्ति को विशेषतः महत्त्वपूर्ण समझते हुए श्रीमद् जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणविरचित स्वोपज्ञ वृत्ति तथा कोट्याचार्यविहित विवरणये दो टीकाएं विद्यमान हैं किंतु वे अति गंभीर वाक्यात्मक एवं कुछ संक्षिप्त होने के कारण मंदमति शिष्यों के लिए कठिन सिद्ध होती हैं। इसी कठिनाई को दूर करने के लिए प्रस्तुत वृत्ति प्रारम्भ की जा रही है।' वृत्ति के अन्त में प्रशस्ति-सूचक ग्यारह श्लोक हैं जिनमें वृत्तिकार का नाम हेमचन्द्रसूरि एवं उनके गुरु का नाम अभयदेवसूरि बताया गया है और कहा गया है कि राजा जयसिंह के राज्य में सं० ११७५ की कार्तिक शुक्ला पंचमी के दिन यह वृत्ति समाप्त हुई :२ ""सोऽभयदेवसूरिरभवत् तेभ्यः प्रसिद्धो भुवि ॥९॥ तच्छिष्यलवप्रायैरगीतार्थैरपि . शिष्टजनतुष्ट्ये ।। श्रीहेमचन्द्रसूरिभिरियमनुरचिता प्रकृतवृत्तिः ।। १० ।। शरदां च पंचसप्तत्यधिकैकादशशतेष्वतोतेषु । कार्तिकसितपञ्चम्यां श्रीमज्जयसिंहनृपराज्ये ॥ ११ ॥ वृत्ति का ग्रंथमान २८००० श्लोक प्रमाण है। १. पृ० १-२. २. पृ० १३५९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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