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________________ ४०८ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास कल्प (बृहत्कल्प ) सूत्र व व्यवहार सूत्र तथा उनको व्याख्याओं के रचयिताओं के विषय में अपना वक्तव्य उपस्थित करते हुए वृत्तिकार ने बताया है कि चतुर्दश पूर्वधर भगवान् भद्रबाहुस्वामी ने साधुओं के अनुग्रह के हेतु कल्पसूत्र और व्यवहार सूत्र की रचना की जिससे कि प्रायश्चित्त का व्यवच्छेद न हो। इन्होंने इन दोनों सूत्रों की सूत्रस्पशिक नियुक्ति भी बनाई। सनियुक्तिक सूत्रों को भी अल्पबुद्धिवाले प्राणियों के लिए कठिन अनुभव करते हुए भाष्यकार ने उन पर भाष्य लिखा। यह सूत्रस्पशिक नियुक्ति का अनुगमन करने वाला होने के कारण नियुक्ति और भाष्य एक ग्रन्थरूप हो गए : ततो 'मा भूत् प्रायश्चित्तव्यवच्छेदः' इति साधूनामनुग्रहाय चतुर्दशपूर्वधरेण भगवता भद्रबाहुस्वामिना कल्पसूत्रं व्यवहारसूत्र चकारि, उभयोरपि च सूत्रस्पशिकनियुक्तिः । इमे अपि च कल्प-व्यवहारसूत्र सनियुक्तिके अल्पग्रन्थतयामहार्थत्वेन च दुःषमानुभावतो होयमानमेधाऽऽयुरादिगणानामिदानीन्तनजन्तूनामल्पशक्तिनां दुहे दुरवधारे जाते, ततः सुखग्रहणधारणाय भाष्यकारो भाष्यं कृतवान्, तत्र सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्यनुगतमिति सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिर्भाष्यं चैको ग्रन्थो जातः।' वृत्तिकार ने प्रस्तुत वृत्ति में प्राकृत गाथाओं के साथ-साथ प्राकृत कथानक भी उद्धृत किये हैं। 'यत एवं स्वस्थानप्रायश्चित्तं ततो विपर्यस्तग्रहणकरणे न विधेये२ एतत्पर्यन्त पीठिकावृत्ति आचार्य मलयगिरि की कृति है जिसका ग्रंथमान ४६०० श्लोक-प्रमाण है। १. पृ० २. २. पृ० १७६. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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