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________________ मलयगिरिविहित वृत्तियाँ ३९५ प्रकार है : इह स्कन्दिलाचार्यंप्रवृत्तौ दुष्षमानुभावतो दुर्भिक्षप्रवृत्त्या साधूनां पठनगुणनादिकं सर्वमप्यनेशात्, ततो दुर्भिक्षातिक्रमे सुभिक्षप्रवृत्तौ द्वयोः सङ्घमेलापकोऽभवत्, तद्यथा - एको वालभ्यामेको मथुरायां तत्र च सूत्रार्थसङ्घटनेन परस्परं वाचनाभेदो जातः, विस्मृतयोहि सूत्रार्थयोः स्मृत्वा स्मृत्वा सङ्घटने भवत्यवश्यं वाचनाभेदो, न काचिदनुपपत्तिः, तत्रानुयोगद्वारादिकमिदानीं वर्तमानं माथुरवाचनानुगतं, ज्योतिष्करण्डकसूत्रकर्त्ता चाचार्यो वालभ्यः, तत इदं संख्यास्थानप्रतिपादनं वालभ्यवाचनानुगतमिति नास्यानुयोगद्वारप्रतिपादितसंख्यास्थानैः सह विसदृशत्वमुपलभ्य विचिकित्सितव्यमिति । ' ...) कालविभागविषयक व्याख्यान के अन्त में वृत्तिकार ने इसी ज्योतिष्करण्डकके टीकाकार पादलिप्तसूरि का एक वाक्य उद्धृत किया है तथा चास्यैव ज्योतिष्करण्डकस्य टीकाकारः पादलिप्तसूरिराह - 'एए उ सुममसुसमादयो श्रद्धाविसेसा जुगाइणा सह पवत्तंते, जुगंतेण सह समप्पंति'त्ति । पादलिप्त-सूरि का यह वाक्य इस समय उपलब्ध ज्योतिष्करण्डक की प्राकृत टीका में नहीं मिलता । क्या ये दोनों टीकाएँ एक ही व्यक्ति को नहीं हैं ? क्या उपलब्ध प्राकृत टीका से भिन्न कोई अन्य टोका पादलिप्तसूरि ने लिखी है ? यदि ऐसा है तो उपलब्ध टीका किसकी वृत्ति है ? इस प्रसंग पर इस प्रकार के प्रश्न उठना स्वाभाविक है । आगे जाकर मलयगिरि ने 'पंचेव जोयणसया दसुत्तरा जत्थ मंडला " ( गा० २०५ ) की व्याख्या में ज्योतिष्करण्डक की मूलटीका का एक वाक्य उदधृत किया है : एवंरूपा च क्षेत्रकाष्ठा मूलटीकायामपि भाविता, तथा च तद्ग्रन्थः - 'सूरस्स पंचजोयणसया दसाहिया कट्ठा, सच्चेव अट्ठहं एगट्ठिभागेहिं ऊणिया चंदकट्ठा हवइ' इति । ठीक इसी प्रकार का वाक्य उपलब्ध प्राकृत टीका में भी मिलता है । वह इस प्रकार है : सूरस्स पंचजोयणसयाणं दसाधिया कट्ठा सच्चेव अहि एगट्टि भागेहि ऊणा चंदकट्टहवति..... इससे यह फलित होता है कि उपलब्ध प्राकृत टीकाआचार्य मलयगिरिनिर्दिष्ट ज्योतिष्करण्डक की मूलटीका है और पादलिप्तसूरि की टीका कोई दूसरी ही होनी चाहिए । किन्तु उपलब्ध टीका के अन्त में जो वाक्य मिलता है उससे यह फलित होता है कि यह टीका पादलिप्तसूरि की कृति है । वह वाक्य कुछ अशुद्धरूप में इस प्रकार है: पुव्वायरियकया य नीति समस १. पृ. ४१ ३. पृ. १२१ Jain Education International २. पृ. ५२. ४. प्राकृत वृत्ति, पु. ३५ (हस्तलिखित ). For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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