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________________ ३८० जैन साहित्य का बृहद् इतिहास शब्दार्थ बताते हुए वृत्तिकार कहते हैं : तत्रान्तो-भवान्तः कृतो-विहितो यैस्तेऽन्तकृतास्तद्वक्तव्यताप्रतिबद्धा दशाः-दशाध्ययनरूपा ग्रन्थपद्धतय इति अन्तकृद्दशाः, इह चाष्टौ वर्गा भवन्ति । तत्र प्रथमे वगै दशाध्ययनानि । 'अन्त' का अर्थ है भवान्त और 'कृत' का अर्थ है विहित । जिन्होंने अपने भव का अन्त किया है वे अन्तकृत हैं। अन्तकृतसम्बन्धी ग्रन्थविशेष जिसकी पद्धति दशाध्ययनरूप-दस अध्ययनवाली है, अन्तकृद्दशा कहलाता है । यद्यपि अन्तकृद्दशा के प्रत्येक वर्ग में दस अध्ययन नहीं है तथापि कुछ वर्गों की दस अध्ययनवाली पद्धति के कारण इसका नाम अन्तकृद्दशा रखा गया है। वृत्ति के अन्त में आचार्य लिखते हैं : यदिह न व्याख्यातं तज्ज्ञाताधर्मकथाविवरणादवसेयम्-जिसका यहाँ व्याख्यान न किया गया हो वह ज्ञाताधर्मकथा के विवरण से समझ लेना चाहिए । निम्नलिखित श्लोक के साथ वृत्ति पूर्ण होती है : अनन्तरसपर्यये जिनवरोदिने शासने, ___यकेह समयानुगा गमनिका किल प्रोच्यते । गमान्तरमुपैति सा तदपि सद्भिरस्यां कृता वरूढगमशोधनं ननु विधीयतां सर्वतः ॥ अनुत्तरौपपातिकदशावृत्ति : __ यह वृत्ति भी सूत्रस्पशिक एवं शब्दार्थग्राही है। प्रारम्भ में वृत्तिकार ने 'अनुत्तरौपपातिकदशा' का अर्थ बताया है : तत्रानुत्तरेषु विमानविशेषेषुपपातो जन्म अनुत्तरोपपातः स विद्यते येषां तेऽनुत्तरोपपातिकास्तत्प्रतिपादिका दशाः। दशाध्ययनप्रतिबद्धप्रथमवर्गयोगाद्दशाः ग्रन्थविशेषोऽनुत्तरौपपातिकदशास्तासां च सम्बन्धसूत्रम् । अनुत्तरविमान में उत्पन्न होनेवाले अनुत्तरौपपातिक कहे जाते हैं। जिस ग्रंथ में अनुत्तरोपपातिकों का वर्णन है उसका नाम भी अनुत्तरौपपातिक है। उसके प्रथम वर्ग में दस अध्ययन है । अतः उसे अनुत्तरौपपातिकदशा कहते हैं । अन्त में वृत्तिकार ने लिखा है : शब्दाः केचन नार्थतोऽत्र विदिताः केचित्तु पर्यायतः, सूत्रार्थानुगतेः समूह्य भणतो यज्जातमागःपदम् । वृत्तावत्र तकत् जिनेश्वरवचोभाषाविधौ कोविदः, संशोध्यं विहितादरैजिनमतोपेक्षा यतो न क्षमा । १. (अ) रायबहादुर धनपतसिंह, कलकत्ता, सन् १८७५. ( आ ) आगमोदय समिति, सूरत, सन् १९२०. (इ) गूर्जर ग्रंथरत्न कार्यालय, अहमदाबाद, सन् १९३२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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