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________________ २८ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास नियुक्ति, १२. जीतकल्प, १३. उत्तराध्ययन, १४. आवश्यक, १५. दशवकालिक, १६. नन्दी, १७. अनुयोगद्वार, १८. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति । निशीथ और जीतकल्प पर दो-दो चूर्णियां लिखी गई हैं किन्तु वर्तमान में एक-एक ही उपलब्ध हैं। अनुयोगद्वार, बृहत्कल्प एवं दशवैकालिक पर भी दो-दो चूर्णियाँ हैं । जिनदासगणि महत्तर की मानी जाने वाली निम्नांकित चूणियों का रचनाक्रम इस प्रकार है : नन्दीचूणि, अनुयोगद्वारणि, ओघनियुक्तिचूणि, आवश्यकचूणि, दशवैकालिकचूणि, उत्तराध्ययनचूर्णि, आचारांगचूर्णि, सूत्रकृतांगणि, निशीथविशेषचूणि,, दशाश्रुतस्कन्धचूर्णि एवं बृहत्कल्पचूणि संस्कृतमिश्रित प्राकृत में हैं। आवश्यकचूणि, अगस्त्यसिंहकृत दशवैकालिकचूर्णि एवं जीतकल्पचूणि ( सिद्धसेनकृत ) प्राकृत में हैं । चूर्णिकार : __ चूर्णिकार के रूप में जिनदासगणि महत्तर का नाम विशेषरूप से उल्लेखनीय है । परम्परा से निम्न चूणियां जिनदासगणि महत्तर की मानी जाती हैं : निशीथविशेषचूणि, नन्दीचूर्णि, अनुयोगद्वारचूणि, आवश्यकचूणि, दशवैकालिकचूर्णि, उत्तराध्ययनचूणि, आचारांगणि, सूत्रकृतांगणि । उपलब्ध जीतकल्पचूणि के कर्ता सिद्धसेनसूरि हैं। बृहत्कल्पचणि प्रलम्बसूरि की कृति है । अनुयोगद्वार की एक चूर्णि ( अंगुल पद पर ) के कर्ता भाष्यकार जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण भी हैं। यह चूर्णि जिनदासगणिकृत अनुयोगद्वारचूणि में अक्षरशः उद्धृत है। दशवकालिक पर अगस्त्यसिंह ने भी एक चूणि लिखी है । इनके अतिरिक्त अन्य चूणिकारों के नाम अज्ञात हैं। प्रसिद्ध चूर्णिकार जिनदासगणि महत्तर के धर्मगुरु का नाम उत्तराध्ययनचूणि के अनुसार वाणिज्यकुलीन, कोटिकगणीय, वज्रशाखीय गोपालगणि महत्तर है तथा विद्यागुरु का नाम निशीथ-विशेषणि के अनुसार प्रद्यम्न क्षमाश्रमण है। जिनदास का समय भाष्यकार आचार्य जिनभद्र और टीकाकार आचार्य हरिभद्र के बीच में है। इसका प्रमाण यह है कि आचार्य जिनभद्रकृत विशेषावश्यकभाष्य की गाथाओं का प्रयोग इनकी चूणियों में दृष्टिगोचर होता है तथा इनकी चूणियों का पूरा उपयोग आचार्य हरिभद्र को टीकाओं में हुआ दिखाई देता है। ऐसी स्थिति में चूर्णिकार जिनदासगणि महत्तर का समय वि. सं. ६५०-७५० के आसपास मानना चाहिए क्योंकि इनके पूर्ववर्ती आचार्य जिनभद्र वि. सं. ६५०-६६० के आसपास तथा इनके उत्तरवर्ती आचार्य हरिभद्र वि. सं. ७५७-८२७ के आसपास विद्यमान थे । नन्दीचूणि के अन्त में उसका रचना-काल शक संवत् ५९८ उल्लिखित है। इस प्रकार इस उल्लेख के अनुसार भी जिनदास का समय विक्रम की आठवीं शताब्दी का पूर्वाध निश्चित है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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