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________________ हरिभद्रकृत वृत्तियां ३४५ अर्थात् यद्यपि मैंने तथा अन्य आचार्यों ने इस सूत्र का विवरण लिखा है तथापि संक्षेप में वैसी रुचि वाले लोगों के लिए पुनः प्रस्तुत प्रयास किया जा रहा है। इस कथन से आचार्य हरिभद्रकृत एक और टीका-बृहट्टीका का होना फलित होता है । यह टीका अभी तक अनुपलब्ध है। __इन दोनों श्लोकों का विवेचन करने के बाद नियुक्ति की प्रथम गाथा 'आभिणिबोहियनाणं........' की व्याख्या करते हुए आचार्य ने पाँच प्रकार के ज्ञान का स्वरूप-प्रतिपादन किया है । आभिनिबोधिक आदि ज्ञानों की व्याख्या में वैविध्य का पूरा उपयोग किया है। यह व्याख्यानवैविध्य चूणि में दृष्टिगोचर नहीं होता। उदाहरण के लिए 'आभिनिबोधिक' शब्द के व्याख्यान में कितनी विविधता है, इसकी ओर जरा ध्यान दीजिए : 'अर्थाभिमुखो नियतो बोधः अभिनिबोधः, अभिनिबोध एव आभिनिबोधिकं, विनयादिपाठात् अभिनिबोधशब्दस्य “विनयादिभ्यष्ठक" (पा० ५, ४, ३४) इत्यनेन स्वार्थ एव ठक् प्रत्ययो, यथा विनय एव वनयिकमिति, अभिनिबोधे वा भवं तेन वा निवृत्तं तन्मयं तत्प्रयोजनं वा, अथवा अभिनिबुध्यते तद् इत्याभिनिबोधिकं, अवग्रहादिरूपं मतिज्ञानमेव तस्य स्वसंविदितरूपत्वात्, भेदोपचारादित्यर्थः, अभिनिबुध्यते वाऽनेनेत्याभिनिबोधिक, तदावरणकर्मक्षयोपशम इति भावार्थः, अभिनिबुध्यते अस्मादिति वा आभिनिबोधिक, तदावरणकर्मक्षयोपशम एव, अभिनिबुध्यतेऽस्मिन्निति वा क्षयोपशम इत्याभिनिवोधिकं, आत्मैव वा अभिनिबोधोपयोगपरिणामानन्यत्वाद् अभिनिबुध्यत इत्याभिनिबोधिक, अभिनिबोधिकं च तज्ज्ञानं चेति समासः ।" उपयुक्त गद्यांश में वृत्तिकार ने छः दृष्टियों से आभिनिबोधिक ज्ञान का व्याख्यान किया है । (१) अर्थाभिमुख जो नियत बोध है, (२) जो अभिनिबुद्ध होता है, (३) जिसके द्वारा, अभिनिबुद्ध होता है, (४) जिससे अभिनिबुद्ध होता है, (५) जिसमें अभिनिबुद्ध होता है अथवा (६) जो अभिनिबोधोपयोग परिणाम से अभिन्नतया अभिनिबुद्ध होता है वह आभिनिबोधिक है। इसी प्रकार श्रुत, अवधि, मनःपर्याय और केवल का भी भेद-प्रभेदपूर्वक व्याख्यान किया गया है। सामायिक नियुक्ति का व्याख्यान करते हुए प्रवचन की उत्पत्ति के प्रसंग पर वृत्तिकार ने वादिमुख्यकृत दो श्लोक उद्धृत किये हैं जिनमें यह बताया गया है कि कुछ पुरुष स्वभाव से ही ऐसे होते है जिन्हें वीतराग की वाणी अरुचिकर लगती २. पूर्वार्ध, पृ० ७ (१). Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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