SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 349
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४० जैन साहित्य का बृहद् इतिहास विविध प्रकार के श्रोताओं की दृष्टि से कथन के प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण आदि विभिन्न अवयवों की उपयोगिता का सोदाहरण विचार करते हुए आचार्य ने तद्विषयक दोषों की शुद्धि का भी प्रतिपादन किया है। नियुक्तिसम्मत विहंगम के विविध निक्षेपों का विस्तृत व्याख्यान करते हुए दुमपुष्पिका नामक प्रथम अध्ययन का विवरण समाप्त किया है । द्वितीय अध्ययन की वृत्ति में श्रमण, पूर्व, काम, पद आदि शब्दों का विवेचन करते हुए तीन प्रकार के योग, तीन प्रकार के करण, चार प्रकार की संज्ञा, पाँच प्रकार की इन्द्रिय, पाँच प्रकार के स्थावरकाय, दस प्रकार के श्रमणधर्म और अठारह शीलांगसहस्त्र का प्रतिपादन किया गया है । भोगनिवृत्ति का स्वरूप समझाने के लिए रथनेमि और राजीमती का कथानक उद्धृत किया है ।। ___ तृतीय अध्ययन की वृत्ति में महत, क्षुल्लक आदि पदों का व्याख्यान करते हुए दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार का सोदाहरण विवेचन किया गया है । इसी प्रकार अर्थादि चार प्रकार को कथाओं का उदाहरणपूर्वक स्वरूप समझाया गया है । श्रमणसम्बन्धी अनाचीर्ण का स्वरूप बताते हुए वृत्तिकार ने तृतीय अध्ययन की व्याख्या समाप्त की है । चतुर्थ अध्ययन की व्याख्या में निम्न विषयों पर प्रकाश डाला गया है : जीव का स्वरूप व उसकी स्वतन्त्र सत्ता, चारित्रधर्म के पाँच महाव्रत और छठा रात्रिभोजनविरमण व्रत, श्रमणधर्म की दुर्लभता । जीव के स्वरूप का विचार करते समय वृत्तिकार ने अनेक भाष्यगाथाएँ उद्धृत की हैं और साथ ही साथ अपने दार्शनिक दृष्टिकोण का पूरा उपयोग किया है । पंचम अध्ययन की वृत्ति में आहारविषयक मूल गाथाओं का व्याख्यान किया गया है। 'बहअट्रियं पूग्गलं...' की व्याख्या इस प्रकार है : किञ्च 'बहुअठ्ठियं' इति सूत्रं बह्वस्थि 'पुद्गलं' मांसं 'अनिमिषं' वा मत्स्यं वा बहुकण्टकम्, अयं किल कालाद्यपेक्षया ग्रहणे प्रतिषेधः, अन्ये त्वभिदधति-वनस्पत्यधिकारात्तथाविधफलाभिधाने एते इति, तथा चाह-'अत्थिक' अस्थिकवृक्षफलम्, 'तेंदुकं' तेंदुरुकोफलम्, 'बिल्वं' इक्षुखण्डमिति च प्रतोते, 'शाल्मलिं वा' वल्लादिलि वा, वाशब्दस्य व्यवहितः सम्बन्ध इति सूत्रार्थः ।' षष्ठ अध्ययन की वृत्ति में अष्टादश स्थानों का विवरण किया गया है जिनका सम्यक् ज्ञान होने पर ही साधु अपने आचार में निर्दोष एवं दृढ रह सकता है। ये अठारह स्थान व्रतषट्क, कायषट्क, अकल्प, गृहिभाजन, पर्यङ्क, निषद्या, स्नान और शोभावर्जनरूप हैं। १. पृ. १७६ (अ). Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy