SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 346
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हरिभद्रकृत वृत्तियाँ ३३७ टीकायां प्रपञ्चतः प्रतिपादित एवेति नेह प्रतिपाद्यत इति ।' इन वक्तव्यों से स्पष्ट है कि प्रस्तुत टीका नन्दीवृत्ति के बाद की कृति है। 'तम्हा आवस्सयं' इत्यादि का विवेचन करते हुए आचार्य ने 'आवश्यक' शब्द का निपेक्ष-पद्धति से विचार किया है। नामादि आवश्यकों का स्वरूप बताते हुए नाम, स्थापना और द्रव्य का स्वरूप स्पष्ट करने के लिए तीन श्लोक उद्धृत किये हैं। वे इस प्रकार हैं :२ नाम: यद्वस्तुनोऽभिधानं स्थितमन्यार्थे तदर्थनिरपेक्षम् । पर्यायानभिधेयं च नाम यादृच्छिकं च तथा ॥ स्थापना: यत्त तदर्थवियुक्तं तदभिप्रायेण यच्च तत्करणिः । लेप्यादिकर्म तत्स्थापनेति क्रियतेऽल्पकालं च ॥ द्रव्य : भूतस्य भाविनो वा भावस्य हि कारणं तू यल्लोके । तद्रव्यं तत्त्वज्ञैः सचेतनाचेतनं कथितम् ॥ श्रुत का निक्षेप-पद्धति से व्याख्यान करते हुए टीकाकार कहते हैं कि चतुविध श्रुत का स्वरूप आवश्यकविवरण के अनुसार समझ लेना चाहिए । इसी प्रकार आगे भी आवश्यकविवरण और नन्दीविशेषविवरण का उल्लेख किया गया है। स्कन्ध, उपक्रम आदि का निक्षेप-पद्धति से विवेचन करने के बाद आचार्य ने आनुपूर्वी का बहुत विस्तार से प्रतिपादन किया है । आनुपूर्वी, अनुक्रम और अनुपरिपाटी पर्यायवाची हैं। आनुपूर्वी की व्याख्या की समाप्ति के अनन्तर द्विनाम, त्रिनाम, चतुर्नाम, पंचनाम, षट्नाम, सप्तनाम, अष्टनाम, नवनाम और दशनाम का व्याख्यान किया गया है। प्रमाण का व्याख्यान करते हुए आचार्य ने विविध अंगुलों के स्वरूप का वर्णन किया है तथा समय का विवेचन करते हुए पल्योपम का विस्तारपूर्वक व्याख्यान किया है। इसी प्रकार शरीरपञ्चक का निरूपण करने के बाद भावप्रमाण के अन्तर्गत प्रत्यक्ष, अनुमान, औपम्य, आगम, दर्शन, चारित्र, नय और संख्या का व्याख्यान किया है। ‘से किं तं वत्तव्वया' इत्यादि का प्रतिपादन करते हुए वक्तव्यता की दृष्टि से पुनः नय का विचार किया गया है। ज्ञाननय और क्रियानय का स्वरूप बताते हुए आचार्य ने ज्ञान और क्रिया दोनों की संयुक्त उपयोगिता सिद्ध की है। ज्ञानपक्ष का समर्थन करते हुए वे कहते हैं : १.१० २. २. पृ० ६, ७, ८. ३. पृ० २१. ४. पृ० २२. ५. पृ० ३०-५९. ६. पृ० १२६. २२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy