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________________ ३२८ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास कलाभिः सकलः, सम्पूर्ण इत्यर्थः । अस्ति हेतद्देशसंगृहीतत्वाद् विकलोऽपि संग्रहः, अयं तु समस्तग्राहित्वात् सकलः। कथम् ? सामायिके एव द्वादशाङ्गार्थपरिसमाप्तेः। वक्ष्यते च-“सामाइयं तु तिविहं" कश्चासौ ? आवश्यकानुयोगः। अवश्यक्रियानुष्ठानादौ आवश्यकमनुयोजनमनुयोगोऽर्थव्याख्यानमित्यर्थः, आवश्यकस्यानुयोग आवश्यकानुयोगः तमावश्यकानुयोगम् । गृणन्ति शास्त्रार्थमिति गुरवो ब्रुवन्तीत्यर्थः, ते पुनराचार्या अर्हदादयो वा, तदुपदेशः-तदाज्ञा, गुरूपदेशानुसारो गुरूपदेशानुवृत्तिरित्यर्थः, तया गुरूपदेशानुवृत्त्या-गुरूपदेशानुसारेणेति ।' ___ मंगलविषयक 'बहुविग्घाइं-', 'तं मंगलमादी-' और 'तस्सेवइन तीन गाथाओं ( गा० १२-१४ ) का व्याख्यान करते हुए आचार्य ने कितने संक्षेप में मंगल का प्रयोजन बताया है, देखिए : ____ 'बहुविघ्नानि श्रेयांसीत्यतः कृतमङ्गलोपचारैरसौ ग्राह्योऽनुयोगो महानिधानवद् महाविद्यावद् वा । तदेतद् मंगलमादौ मध्ये पर्यन्ते च शास्त्रस्येष्यते । तत्र प्रथमं शास्त्रपारगमनाय । तस्यैव शास्त्रस्य स्थैर्यहेतोमध्यमम् । अव्यवच्छित्यर्थमन्त्यमिति । __ आभिनिबोधिक ज्ञान का स्वरूप बताने वाली भाष्यगाथा 'अत्याभिमुहो-' ( गा० ८० ) की व्याख्या में आचार्य ने इस ज्ञान का लक्षण इस प्रकार बताया है : ‘अर्थाभिमुखो नियतो बोधोऽभिनिबोधः । स एव स्वार्थिकप्रत्ययोपादानादाभिनिबोधिकः। अथवा यथायोगमायोजनीयम्, तद्यथाअभिनिबोधे भवं तेन निर्वृत्तं तन्मयं तत्प्रयोजनं वेत्याभिनिबोधिकम् ।। आचार्य हरिभद्र ने अपनी आवश्यकवृत्ति में आभिनिबोधिक ज्ञान की इसी व्याख्या को अधिक स्पष्ट किया है।' आचार्य जिनभद्र के देहावसान का निर्देश करते हुए षष्ठ गणधरवक्तव्यता के अन्त में कहा गया है : निर्माप्य षष्ठगणधरवक्तव्यं किल दिवंगताः पूज्याः अनुयोगमार्गदेशिकजिनभद्रगणिक्षमाश्रमणाः । अर्थात् छठे गणवरवाद की व्याख्या करने के बाद अनुयोगमार्ग का दिग्दर्शन कराने वाले पूज्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण इस लोक से चल बसे । यह वाक्य आचार्य कोटयार्य ने जिनभद्र की मृत्यु के बाद लिखा है, ऐसा प्रतीत होता है। इसके बाद कोट्यार्य उन्हीं दिवंगत आचार्य जिनभद्र को नमस्कार करते हुए निम्न शब्दों के साथ आगे की वृत्ति आरम्भ करते हैं : १. देखिए--हारिभद्रीय आवश्यकवृत्ति : पूर्वाद्ध, पृ० ७ (१). Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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