SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 314
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निशीथ-विशेषचूर्णि ३०५ होकर बोलता है उसके लिए मासलघु प्रायश्चित्त का विधान है। परुष-कठोर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव भेद से चार प्रकार का होता है। चूर्णिकार ने इन चारों प्रकारों का विस्तार से वर्णन किया है। भावपरुष क्रोधादिरूप है क्योंकि क्रोधादि के बिना परुष कैसे हो सकता है अर्थात् नहीं हो सकता। जैसा कि भाष्यकार कहते हैं : भावे पूण कोधादी, कोहादि विणा तु कहं भवे फरुसं। उवयारो पुण कीरति, दव्वाति समुप्पति जेणं ॥ ८६२॥ जो भिक्षु अल्प झूठ बोलता है उसके लिए भी मासलघु प्रायश्चित्त है। जैसा कि चूर्णिकार स्वयं कहते हैं : मुसं अलियं, लहुसं अल्पं, तं वदओ मासलहुं । इसी प्रकार लघु अदत्तादान, लघु शीतोदकोपयोग आदि के लिए भी प्रायश्चित्त का विधान किया गया है। स्नान के दोषों का वर्णन करते हुए कहा गया है : हायंतो छज्जीवणिकाए वहेति । पहाणे पडिबंधो भवति-पुनः पुनः स्नायतोत्यर्थः । अस्नानसाधुशरीरेभ्यः निर्मलशरोरो अहमिति गारवं कुरुते स्नान एव विभूषा । अलंकारेत्यर्थः अण्हाणपरीसहाओ वोहति तं न जिनातीत्यर्थः। लोकस्याविश्रम्भणीयो भवति ।२ अर्थात् स्नान करने से षट् जीवनिकाय की हिंसा होती है। एक बार स्नान करने से बार-बार स्नान करने की इच्छा होती है। स्नान न करने वाले साधु को स्नान करने वाला घृणा की दृष्टि से देखता है, अपने को उससे बड़ा समझता है तथा अस्नान-परीषह से डरता है । लोग भी ऐसे साधु का विश्वास नहीं करते। इन दोषों के साथ ही आचार्य ने अपवाद रूप से स्नान की अनुमति भी प्रदान की है। कृत्स्न ( अखण्ड ) चर्म और कृत्स्न वस्त्र रखने का निषेध करते हुए स्वजनगवेषित, परजनगवेषित, वरजनगवेषित बलजनगवेषित आदि पदार्थों के ग्रहण का भी निषेध किया है। वर का अर्थ इस प्रकार है : जो पुरिसो जत्थ गामणगरादिसु अच्यते, अर्चितो वा "गामणगरादि-कारणेसु पमाणीकतो, तेसु वा गामादिसु धणकुलादिणा पहाणो, एरिसे पुरिसे वरशब्दप्रयोगः । सो य इमो हवेज्ज गामिए त्ति गाममहत्तरः, रट्ठिए त्तिराष्ट्रमहत्तरः। ग्राम नगरादि का प्रामाणिक, प्रधान अथवा पूज्य पुरुष 'वर' शब्द से सम्बोधित किया जाता है। इस प्रकार का ग्राम-पुरुष ग्राममहत्तर और राष्ट्र-पुरुष राष्ट्रमहत्तर कहलाता है। बल का अर्थ बताते हुए चर्णिकार कहते हैं : यः पुरुषः यस्य पुरुषस्योपरि प्रभुत्वं करोति सो बलवं भण्णति । १. पृ० ७९. २. पृ० ८६. ३. पृ० १०१. २० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy