SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 267
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५८ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास प्रस्तुत अधिकार द्विपद का है और उसमें भी मनुष्यद्विपद का । मनुष्यद्विपद में भी कर्मभूमिज का अधिकार अभीष्ट है । वह मनुजजीवकल्प छः प्रकार का है : प्रव्राजन, मुंडन, शिक्षण, उपस्थापन, भोग और संवसन : । पव्वावण मुडावण सिक्खावणुवट्ठ भुज संवसणा। एसोत्थ ( तु ) जीवकप्पो, छन्भेदो होति णायव्यो ।।१८६॥ भाष्यकार ने इन पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। प्रव्राजन का विवेचन करते हुए जाति, कुल, रूप और विनयसम्पन्न व्यक्ति को ही प्रव्रज्या के योग्य माना है। बाल, वृद्ध, नपुंसक, जड़, क्लीब, रोगी, स्तेन, राजापकारी, उन्मत्त, अदर्शी, दास, दुष्ट, मूढ, अज्ञानी, जुंगित, भयभीत, पलायित, निष्कासित, गर्भिणी और बालवत्सा-इन बीस प्रकार के व्यक्तियों को प्रव्रज्या-दीक्षा देना अकल्प्य है : बाले वुड्ढे नपुसे य, जड्डे कीवे य वाहिए । तेणे रायावगारी य उन्मत्ते य अदंसणे ॥ २० ॥ दासे दुठे य मूढ़े य, अणत्ते जु गितेइ य । ओबद्धए य भयए, सेहणिप्फेडितेति य ॥ २०१ ॥ गुग्विणी बालवच्छा य, पव्वावेतुण कप्पए। एसि परूवणा दुविहा, उस्सग्गववायसंजुत्ता ।। २०२ ।। इसी से मिलता-जुलता विधान निशीथभाष्य में भी है। एतद्विषयक अनेक गाथाएँ दोनों भाष्यों में समान हैं । अचित्त अर्थात् अजीव-द्रव्यकल्प का विवेचन करते हुए आचार्य ने निम्नलिखित सोलह विषयों पर प्रकाश डाला है : १. आहार, २. उपधि, ३. उपाश्रय, ४. प्रस्रवण, ५. शय्या, ६. निषद्या, ७. स्थान, ८. दंड, ९. चर्म, १०.चिलिमिली, ११. अवलेखनिका, १२. दंतधावन, १३. कर्णशोधन, १४. पिप्पलक, १५. सूची, १६. नखछेदन । मिश्र द्रव्यकल्प का विवेचन करते हुए भाष्यकार ने बताया है कि जीव और अजीव के संयोग आदि से निष्पन्न कल्प मिश्रकल्प कहलाता है। इसके विविध भंग होते हैं । यहाँ तक द्रव्यकल्प का व्याख्यान है । १. गा० १८२-४. २. तुलना : निशीथ-भाष्य, गा० ३५०६-८. ३. आहारे उवहिम्मि य, उवस्सए तह य पस्सवणए य । सेज्ज णिसेज्ज ठाणे, डंडे चम्मे चिलि मिली य ॥ ७२३ ॥ अवलेहणिया दंताण, घोवणे कण्णसोहणे चेव । पिप्पलग सूति णक्खाण, छेदणे चेव सोलसमे ।। ७२४ ॥ ४. गा० ९०१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy