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________________ व्यवहारभाष्य २४९ होने पर दूसरे साधु के लिए पात्रादि सामग्री स्वीकार करना कल्प्य है। वह सामग्री उस साधु से पूछकर उसके ग्रहण न करने की अवस्था में ही गुरु की आज्ञा से अन्य साधु को दी जानी चाहिए । कुक्कुटी के अण्डे के बराबर अथवा कुक्षी (पेट ) में सुखपूर्वक भरा जा सके उतने आहार के बत्तीसवें भाग अर्थात् कुक्षीअण्ड के बराबर के आठ कौर खाने वाला साधु अल्पाहारी, बारह कौर खाने वाला अपार्धाहारी, सोलह कौर खाने वाला अर्धाहारी, चौबीस कौर खाने वाला प्राप्ता. वमौदर्य, इकतीस कौर खाने वाला किंचिदवमौदर्य और बत्तीस कोर खाने वाला प्रमाणाहारी कहलाता है। कुक्कुटी अथवा कुकुटी का व्याख्यान करते हुए कहा गया है कि 'कुत्सिता कुटी कुकुटी' अर्थात् शरीर। उस शरीररूप कुकुटी का अण्डक अर्थात् अण्डे के समान जो मुख है वह कुकुटीअण्डक है। मुख को अण्डक क्यों कहा गया ? क्योंकि गर्भ में सर्वप्रथम शरीर का मुख बनता है और बाद में शेष भाग; अतः प्रथम निष्पन्न होने के कारण मुख को अण्डक कहा गया है ।' नवम उद्देश : इस उद्देश का मुख्य विषय है शय्यातर अर्थात् सागारिक के ज्ञातिक, स्वजन, 'मित्र आदि आगंतुकों से सम्बन्धित आहार के ग्रहण-अग्रहण का विवेक तथा साधुओं को विविध प्रतिमाओं का विधान । सागारिक के घर के अन्दर या बाहर कोई आगन्तुक भोजन कर रहा हो और उस भोजन से सागारिक का सम्बन्ध हो अर्थात् उसे यह कहा गया हो कि तुम्हारे खाने के बाद जो कुछ बचे वापिस सौंपना तो उस आहार में से साधु आगन्तुक के आग्रह करने पर भी कुछ न ले । यदि उस आहार से सागारिक का कुछ भी सम्बन्ध न रह गया हो तो साधु उसे ग्रहण कर सकता है। इसी प्रकार सागारिक के दास-दासी आदि के आहार के विषय में भी समझना चाहिए। औषधि आदि के विषय में भी यही नियम है कि जिसका उस वस्तु पर पूर्ण अधिकार हो उसी की इच्छा से उस वस्तु को ग्रहण करना चाहिए। भाष्यकार ने प्रस्तुत उद्देश की व्याख्या में आदेश अथवा आवेश, चक्रिका, गौलिका, दौषिका, सौत्रिका, बोधिका, कार्पासा, गन्धिकाशाला, शौण्डिकशाला, आपण, भाण्ड, औषधि आदि पदों का समावेश किया है ।२ _प्रतिमाओं के विवेचन में तत्सम्बन्धी काल, भिक्षापरिमाण, करण और करणान्तर, मोक प्रतिमा का शब्दार्थ, कल्पादिग्रहण का प्रयोजन, मोक का स्वरूप, महती मोकप्रतिमा का लक्षण आदि आवश्यक बातों पर संक्षिप्त प्रकाश डाला गया है। १. अष्टम उद्देश : गा० ३००. २. नवम उद्देश : गा० १-७३. ३. गा० ७४-१२८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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