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________________ २४४ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास साथ मिल जाना चाहिए । बने जहाँ तक चातुर्मास में विहार करने का प्रसङ्ग उपस्थित नहीं होने देना चाहिए। आचार्य अथवा उपाध्याय बीमार पड़ जाएं और समुदाय के साधुओं से कहें कि अमुक साधु को मेरी पदवी प्रदान करना और वे इस लोक में न रहें तो उस साधु को उस समय पदवी के योग्य होने की अवस्था में ही पदवी प्रदान करनी चाहिए, अयोग्यता की अवस्था में नहीं। कदाचित् उसे पदवी प्रदान कर दी गई हो किन्तु उसमें आवश्यक योग्यता न हो तो अन्य साधुओं को उसे कहना चाहिए कि तुम इस पदवी के अयोग्य हो अतः इसे छोड़ दो। ऐसो अवस्था में यदि वह पदवी का त्याग कर देता है तो उसे किसी प्रकार का दोष नहीं लगता है । एक समुदाय के दो साधु साथ विचरते हों, उनमें एक चारित्र-पर्याय की दृष्टि से छोटा हो और दूसरा उसी दृष्टि से बड़ा हो तथा छोटा साधु शिष्यवाला हो और बड़े साधु के पास कोई शिष्य न हो तो छोटे साधु को बड़े साधु की आज्ञा में रहना चाहिए तथा उसे आहार-पानी आदि के लिए अपने शिष्य देने चाहिए। यदि बड़ा साधु शिष्य-परिवार से युक्त हो और छोटे साधु के पास एक भी शिष्य न हो तो छोटे को अपनी आज्ञा में रखना अथवा न रखना बड़े की इच्छा पर निर्भर है। इसी प्रकार अपना शिष्य उसकी सेवा के लिए नियुक्त करना या न करना उसकी इच्छा पर है । सारांश यह है कि साथ विचरनेवाले साधुओं में जो गीतार्थ और रत्नाधिक हो उसी को नायक बनाना चाहिए एवं उसकी आज्ञा में रहना चाहिए। प्रस्तुत उद्देश के सूत्रों का व्याख्यान करते हुए भाष्यकार ने निम्न विषयों का वर्णन किया है : चार कल्प-जातसमाप्तकल्प, जातअसमाप्तकल्प, अजातसमाप्तकल्प और अजातअसमाप्तकल्प, वर्षाकाल और विहार, वर्षावास के लिए उपयुक्त स्थान ( चिक्खल, प्राण, स्थण्डिल, वसति, गोरस, जनसमाकुल, वैद्य, औषध, निचय, अधिपति, पाषण्ड, भिक्षा और स्वाध्याय-इन तेरह द्वारों से विचार), त्रैवर्षिकस्थापना, गणधरस्थापन की उपयुक्त विधि, उपस्थापना के नियम, ग्लान की वैयावृत्य, अवग्रह का विभाग, तीन प्रकार की अनुकम्पा-गव्यूत, द्वयर्चगव्यूत और द्विगव्यूतसम्बन्धी अथवा आहार, उपधि और शय्याविषयक इत्यादि ।' पंचम उद्देश : इस उद्देश में साध्वियों के विहार के नियमों पर प्रकाश डाला गया है । प्रवर्तिनी आदि विभिन्न पदों को दृष्टि में रखते हुए विविध विधि-विधानों का निरूपण किया गया है। प्रवर्तिनी के लिए शीत और उष्णऋतु में एक साध्वी को साथ रखकर विहार करने का निषेध है। इन ऋतुओं में कम से कम दो १. चतुर्थ उद्देश : गा० १-५७५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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