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________________ २४० जैन साहित्य का बृहद् इतिहास जिससे विविध प्रकार के कर्मरज का हरण होता है वह भावविहार है । भावविहार दो प्रकार का होता है : गीतार्थं और गोतार्थनिश्रित । गीतार्थ दो प्रकार के हैं : गच्छगत और गच्छनिर्गत । गच्छनिर्गत जिनकल्पिक गीतार्थं है । इसी प्रकार परिहारविशुद्धिक और यथालन्दकल्पिकप्रतिमापन्न भी गीतार्थ हैं । गच्छगत गीतार्थ में दो प्रकार की ऋद्धियाँ हैं : आचार्य और उपाध्याय । शेष गीतार्थनिश्रित हैं ।" जो स्वयं अगोतार्थ है अथवा अगीतार्थनिश्रित है वह आत्मविराधना, संयमविराधना आदि दोषों का भागी होता है । इन आत्मविराधना मादि दोषों का भाष्यकार ने मार्ग, क्षेत्र, विहार, मिथ्यात्व एषणा, शोधि, ग्लान और स्तेन - इन आठ द्वारों से निरूपण किया है। गीतार्थं और गीतार्थनिश्रित भावविहार पुनः दो प्रकार का है : समाप्त कल्प और असमाप्तकल्प । समाप्तकल्प के पुनः दो भेद हैं : जघन्य और उत्कृष्ट । तीन गीतार्थों का विहार जघन्य समाप्तकल्प है । उत्कृष्ट समाप्तकल्प तो बत्तीस हजार का होता है । तोन का समाप्तकल्प जघन्य होता है अतः दो विचरने वालों को लघुक मास प्रायश्चित्त करना पड़ता है । इसी प्रकार अगीतार्थों के लिए भी विविध प्रायश्चित्तों का विधान किया गया है । दो के विहार में अनेक दोषों की संभावना रहती है अतः दो का विहार अकल्प्य है । उपद्रव, दुर्भिक्ष आदि अवस्थाओं में अपवादरूप से दो के विहार का भी विधान है । कारणवशात् दो साधु साथ विचरें और दोनों को कोई दोष लगे तो एक की तपस्या के समय दूसरे को उसकी सेवा करनी चाहिए और दूसरे की तपस्या के समय पहले को उसकी सेवा करनी चाहिए। अनेक समान साधु साथ विचरते हों और उन सबको एक साथ कोई दोष लगा हो तो उनमें से किसी एक को प्रधान बनाकर अन्य साधुओं को तपश्चर्या करनी चाहिए । अन्त में उस प्रधान साधु को उचित प्रायश्चित्त करना चाहिए । परिहार तप करने वाला यदि रुग्ण हो जाए और उसे किसी प्रकार का दोष लगे तो उसकी आलोचना करते हुए उसे तप करना चाहिए तथा अशक्ति की अवस्था में दूसरों को उसकी सेवा करनी चाहिए । इस विषय का विवेचन करते हुए भाष्यकार ने परिहार तप के विविध दोषों और प्रायश्चित्तों का वर्णन किया है । इसी प्रकार अनवस्थाप्य, पारांचित आदि से सम्बन्धित वैयावृत्य का भी विधान किया गया है ।" क्षिप्तचित्त की सेवा का विवेचन करते हुए • आचार्य कहते हैं कि संक्षेप में दो प्रकार के क्षिप्तचित्त होते हैं : लौकिक और लोको १. चतुर्थं विभाग : गा० ३ - २१. ३. गा० ३१-४९. ५. गा० ६२-१०१. Jain Education International २. गा० २४ - ९. ४. गा० ५०-६१. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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