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________________ २३८ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास हो जाता है और इसी प्रकार कुशीलादि में मिल कर कूशीलादि के समान हो जाता है वह असंक्लिष्ट संसक्त है। जो पाँच प्रकार के आस्रव में प्रवृत्त होते हुए भी तीन प्रकार के गौरव से प्रतिबद्ध होता है तथा स्त्री आदि में बंधा होता है वह संक्लिष्ट संसक्त है। इन सब प्रकार के व्यक्तियों के लिए विभिन्न प्रायश्चित्तों का विधान किया गया है । साधुओं के विहार की चर्चा करते हुए एकाकी विहार का निषेध किया : गया है तथा तत्सम्बन्धी अनेक दोषों का वर्णन किया गया है। बिना किसी विशेष कारण के आचार्यादि को छोड़ कर नहीं रहना चाहिए । जिस गच्छ में आचार्य, उपाध्याय गणावच्छेदक, प्रवर्तक और स्थविर-इन पाँच में से एक भी विद्यमान न हो उस गच्छ में नहीं रहना चाहिए क्योंकि वहाँ अनेक दोषों की सम्भावना रहती है । भाष्यकार ने इन दोषों का स्वरूप समझाते हुए एक वणिक का दृष्टान्त दिया है । वह इस प्रकार है : किसी बनिये के पास बहुत-सा धन इकट्ठा हो गया । तब उसने सोचा-मैं कहाँ जाकर रहूँ कि इस धन का अच्छी तरह उपभोग कर सकूँ ? ऐसा विचार करते हुए उसने निश्चय किया कि जहाँ पर ये पाँच आधार न हों वहाँ रहना ठीक नहीं । वे पाँच आधार ये हैं : राजा, वैद्य, धनिक, नियतिक और रूपयक्ष अर्थात् धर्मपाठक । जहाँ राजादि पाँच प्रकार के लोग न हों वहाँ धन का अथवा जीवन का नाश हुए बिना नहीं रहता। परिणामतः द्रव्योपार्जन विफल सिद्ध होता है । अथवा राजा, युवराज, महत्तरक, अमात्य तथा कुमार-इन पांच प्रकार के व्यक्तियों से परिगृहीत राज्य गुणविशाल होता है। इस प्रकार के गुणविशाल राज्य में रहना चाहिए । राजा कैसा होना चाहिए ? जो उभय योनि अर्थात् मातृपक्ष और पितृपक्ष से शुद्ध है, प्रजा से आय का दशम भागमात्र ग्रहण करता है, लोकाचार, दार्शनिक सिद्धान्त एवं नीतिशास्त्र में निपुण है तथा धर्म में श्रद्धा रखता है वह वास्तव में राजा है, शेष राजाभास हैं। राजा स्वभुजोपार्जित पांच प्रकार के ( रूपरसादि ) गुणों का निरुद्विग्न होकर उपभोग करता है तथा देशपरिपन्थनादि व्यापार से विप्रमुक्त होता है। युवराज कैसा होना चाहिए ? जो प्रातःकाल उठकर शरीरशुद्धि आदि आवश्यक कार्यों से निवृत्त होकर आस्थानिका में जाकर सब कामों की विचारणा करता है वह युवराज है। महत्तरक के लक्षण ये हैं : जो गम्भीर है, मार्दवोपेत है, कुशल है, जाति और विनयसम्पन्न है तथा युवराज सहित राज कार्यों का प्रेक्षण करता है वह महत्तरक है। अमात्य कैसा होना चाहिए ? जो व्यवहार कुशल और नीतिसम्पन्न होकर जनपद, पुरवर २. गा० २३४ से भागे. . . . . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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