SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 228
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बृहत्कल्प-लघुभाष्य २१९ इसका नौ द्वारों से विचार किया गया है : १. सागारिकद्वार, २. कः सागारिकद्वार, ३. कदा सागारिकद्वार, ४. कतिविधः सागारिकपिण्डद्वार, ५. अशय्यातरो वा कदाद्वार, ६. शय्यातरः कस्य परिहर्तव्यद्वार, ७. दोषद्वार, ८. कल्पनीयकारणद्वार ९. यतनाद्वार-पिता-पुत्रद्वार, सपत्नीद्वार, वणिग्द्वार, घटाद्वार और ब्रजद्वार ।' आहृतिका-निहृतिकाप्रकृतसूत्रों की व्याख्या में दूसरों के यहां से आने वाली भोजन-सामग्री का दान करने वाले सागारिक और ग्रहण करने वाले श्रमण के कर्तव्यों का वर्णन किया गया है ।२ ___ अंशिकाप्रकृतसूत्र की व्याख्या में इस बात का प्रतिपादन किया गया है कि जब तक सागारिक की अंशिका ( भाग ) अलग न कर दी गई हो तब तक दूसरे का अंशिकापिण्ड श्रमण के लिए अग्रहणीय है। सागारिक की अंशिका का पांच प्रकार के द्वारों से वर्णन किया गया है : १. क्षेत्रद्वार, २. यन्त्रद्वार, ३. भोज्यद्वार, ४. क्षीरद्वार और ५. मालाकारद्वार । पूज्यभक्तोपकरणप्रकृतसूत्रों का विवेचन करते हुए कहा गया है कि विशिष्ट व्यक्तियों के लिए निर्मित भक्त अथवा उपकरण सागारिक स्वयं अथवा उसके परिवार का कोई सदस्य श्रमण को दे तो उसे ग्रहण नहीं करना चाहिए।' उपधिप्रकृतसूत्र की व्याख्या में जाङ्गिक, भाषिक, सानक, पोतक और तिरीटपट्टक-इन पाँच प्रकार के वस्त्रों का स्वरूप, उपधि के परिभोग की विधि, उसकी संख्या, अपवाद आदि पर प्रकाश डाला गया है।" रजोहरणप्रकृतसूत्र की व्याख्या में औणिक, औष्ट्रिक, सानक, वच्चकचिप्पक और मुजचिप्पक--इन पांच प्रकार के रजोहरणों के स्वरूप, उनके ग्रहण की. विधि, क्रम और कारणों का विचार किया गया है। तृतीय उद्देश-उपाश्रयप्रवेशप्रकृतसूत्र : प्रस्तुत सूत्र की व्याख्या में इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है कि निर्ग्रन्थों को निर्ग्रन्थियों के और निर्ग्रन्थियों को निर्ग्रन्थों के उपाश्रय में शयन, आहार, विहार, स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग आदि करना वर्जित है। इस प्रसंग पर स्थविरादि से पूछकर अथवा बिना पूछे निग्रंन्थियों के उपाश्रय में बिना कारण जाने से आचार्यादि को लगनेवाले दोषों और ओघ प्रायश्चित्तों का वर्णन किया १. गा० ३५१८-३६१५. ३. गा० ३६४३-३६५२. ५. गा० ३६५९-३६७२. २. गा० ३६१६-३६४२. ४. गा० ३६५३-८. ६. गा० ३६७३-८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy