SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 226
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बृहत्कल्प- लघुभाष्य २१७ चाहिए, इसकी ओर निर्देश करते हुए आचार्य ने आठ प्रकार के सार्थवाहों और आठ प्रकार के आदियात्रिकों अर्थात् सार्थव्यवस्थापकों का उल्लेख किया है । इसके बाद सार्थवाह की अनुज्ञा लेने की विधि और भिक्षा, भक्तार्थना, वसति, स्थंडिल आदि से सम्बन्ध रखने वाली यतनाओं का वर्णन किया है । अध्वगमनोपयोगी अध्वकल्प का स्वरूप बताते हुए अध्वगमनसम्बन्धी अशिव, दुर्भिक्ष, राजद्विष्ट आदि व्याघातों और तत्सम्बन्धी यतनाओं का विस्तृत विवेचन किया है । " संखडिप्रकृतसूत्र : 'संखडि' की व्युत्पत्ति इस प्रकार की गई है : सम्-इति सामस्त्येन खण्ड्यन्ते त्रोटयन्ते जीवानां वनस्पतिप्रभृतीनामायूंषि प्राचुर्येण यत्र प्रकरण विशेषे सा खलु संखडिरित्युच्यते अर्थात् जिस प्रसंग विशेष पर सामूहिक रूप से वनस्पति आदि का उपभोग किया जाता हो उसे संखडि कहते हैं । प्रस्तुत सूत्र की व्याख्या में यह बताया गया है कि निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को रात्रि के समय संखडि में अथवा संखडि को लक्ष्य में रख कर कहीं नहीं जाना चाहिए । माया लोलुपता आदि कारणों से संखडि में जाने वाले को लगने वाले दोष, यावन्तिका, प्रगणिता, सक्षेत्रा, अक्षेत्रा, बाह्या, आकीर्णा आदि संखड के विविध भेद और तत्सम्बन्धी दोषों का प्रायश्चित्त, संखडि में जाने योग्य आपवादिक कारण और आवश्यक यतनाएँ आदि विषयों पर भी प्रकाश डाला गया है । ३ विचारभूमि - विहारभूमिप्रकृतसूत्र : निर्ग्रन्थों को रात्रि के समय विचारभूमि -नीहारभूमि अथवा विहारभूमि - स्वाध्यायभूमि में अकेले नहीं जाना चाहिए | विचारभूमि दो प्रकार की है : - कायिकी भूमि और उच्चारभूमि । इनमें रात्रि के समय अकेले जाने से अनेक दोष लगते हैं । अपवादरूप से अकेले जाने का प्रसङ्ग आनेपर विविध प्रकार की यतनाओं के सेवन का विधान किया गया है । इसी प्रकार निर्ग्रन्थी के लिए भी रात्रि के समय अकेली विचारभूमि और विहारभूमि में जाने का निषेध है । आर्यक्षेत्र प्रकृतसूत्र : इस सूत्र की व्याख्या में आचार्य ने श्रमण श्रमणियों के विहारयोग्य क्षेत्र की मर्यादाओं का विवेचन किया है । साथ ही आर्यक्षेत्रविषयक प्रस्तुत सूत्र अथवा सम्पूर्ण कल्पाध्ययन का ज्ञान न रखनेवाले अथवा ज्ञान होते हुए भी उसका २. गा० ३१४०. ३. गा० ३१४१-३२०६. १. गा० ३०३८-३१३८. ४. गा० ३२०७ - ३२३९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy