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________________ १९४ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास की दृष्टि से तपोदान का क्या अर्थ है, काल के स्वरूप को दृष्टि में रखते हुए तपोदान का किस प्रकार वर्णन किया जा सकता है, भाव के स्वरूप की दृष्टि से तपोदान का रूप क्या हो सकता है - इन महत्त्वपूर्ण प्रश्नों का समाधान भाष्यकार ने बहुत संक्षिप्त एवं सरल ढंग से किया है ।" इसी प्रकार पुरुष की दृष्टि से भी तपोदान का विचार किया गया है । इस प्रसंग पर गीतार्थ, अगीतार्थं, सहनशील असहनशील, शठ, अशठ, परिणामी, अपरिणामी, अतिपरिणामी, धृतिसंहननोपेत, हीन, आत्मतर, परतर, उभयतर, नोभयतर, अन्यतर आदि अनेक प्रकार के पुरुषों का स्वरूप - वर्णन किया गया है । कल्पस्थित और अकल्पस्थित पुरुषों का वर्णन करते हुए आचार्य ने 'स्थिति' शब्द के निम्न पर्याय दिए हैं : प्रतिष्ठा, स्थापना, स्थपति, संस्थिति, स्थिति, अवस्थान, अवस्था । कल्पस्थिति छः प्रकार की है : सामायिक, छेद, निर्विशमान, निर्विष्ट, जिनकल्प और स्थविरकल्प | कल्प दस प्रकार का है : १. आचेलक्य, २. औद्देशिक, ३. शय्यातर, ४. राजपिण्ड, ५. कृति कर्म, ६. व्रत, ७. ज्येष्ठ, ८. प्रतिक्रमण, ९. मास, १०. पर्युषणा । भाष्यकार ने इन कल्पों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। इसके साथ ही परिहारकल्प, जिनकल्प, स्थविरकल्प आदि के स्वरूप का भी वर्णन किया है। इसके बाद परिणत, अपरिणत, कृतयोगी, अकृतयोगी, तरमाण, अतरमाण आदि पुरुषों का स्वरूप बताते हुए कल्पस्थित आदि पुरुषों की दृष्टि से तपोदान का विभाग किया गया है । " आगे मूल सूत्र के पदों का व्याख्यान करते हुए आचार्य ने जीतयन्त्र की विधि बताई है एवं प्रतिसेवना का स्वरूप बताते हुए उस दृष्टि से तपोदान का विभाग करके तपः प्रायश्चित्त का सुविस्तृत विवेचन समाप्त किया है । " छेद और मूल : छेदप्रायश्चित्त के अपराध-स्थानों के वर्णन के प्रसंग से उत्कृष्ट तपोभूमि की ओर भी निर्देश किया गया है । आदि जिन की उत्कृष्ट तपोभूमि एक वर्ष की हाती है, मध्यम जिनों की उत्कृष्ट तपोभूमि आठ मास की होती है तथा अन्तिम जिन की तपोभूमि का समय छः मास है । इसके बाद मूलप्रायश्चित्त के अपराधस्थानों की ओर संकेत किया गया है । " अनवस्थाप्य : अनवस्थाप्य - प्रायश्चित्त के अपराध-स्थानों का दिग्दर्शन कराते हुए आचार्य ने हस्तताल, हस्तालंब, हस्तादान आदि का स्वरूप बताया है तथा अवसन्नाचार्य १. गा० १७९५-१९३७. २. गा० १९३८-१९६४. ३. गा० १९६६. ४. गा० १९६७. ५. गा० १९६८- २१९५. ६. गा० २१९६-२२७९. ७. गा० २२८५-६. ८. गा० २२८८-२३००. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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