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________________ जीतकल्पभाष्य ८. मानदोष, ९. मायादोष, १०. लोभदोष, ११. संस्तवदोष, १२. विद्यादोष, १३. मन्त्रदोष, १४. चूर्णदोष, १५. योगदोष, १६. मूलकर्मदोष ।' इन दोषों का भाष्यकार ने बहुत विस्तार-पूर्वक वर्णन किया है । क्रोध के लिए क्षपक का, मान के लिए क्षुल्लक का, माया के लिये आषाढभूति का, लोभ के लिये सिंहकेसर नामक मोदक की इच्छा रखने वाले क्षपक का, विद्या के लिए भिक्षु-उपासक अर्थात् बौद्ध-उपासक का, मंत्र के लिए पादलिप्त और मुरुंडराज का, चूर्ण के लिए दो क्षुल्लकों का और योग के लिए ब्रह्मद्वैपिक तापसों का उदाहरण दिया है ।२। ___ग्रहणैषणा का स्वरूप बताते हुए आचार्य ने ग्रहणषणा के दस प्रकारों का भी उल्लेख किया है । जिन दस पदों से ग्रहणषणा की शुद्धि होनी चाहिए उनके नाम ये हैं : शंकित, म्रक्षित, निक्षिप्त, पिहित, संहृत, दायक, उन्मिश्र, अपरिणत, लिप्त और छर्दित । इन दस प्रकार के दोषों का विशेष वर्णन करने के बाद ग्रासषणा के स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है। इसके लिए संयोजना, प्रमाण, अंगार, धूम, कारण आदि दोषों के वर्जन का विधान किया गया है। इसके बाद पिण्ड विशुद्धि विषयक अतिचारों से सम्बन्धित प्रायश्चित्तों का विधान किया गया है।" तप.प्रायश्चित्त से सम्बन्धित अन्य सूत्र-गाथाओंको विवेचना करते हुए भाष्यकार ने घावन, डेपन, संघर्ष, गमन, क्रीडा, कुधावना, उत्क्रुष्टि, गोत, सेण्टिका, जीवरुत आदि पदों का व्याख्यान किया है । तपःप्रायश्चित्त की जघन्य, मध्यम तथा उत्कृष्ट उपधियों का आश्रय लेते हुए विच्युत, विस्मृत, अप्रैक्षित, अनिवेदन आदि पदों की व्याख्या की है। इसी प्रकार कालतीतकरण, अध्वातीतकरण, तत्परिभोग, पानासंवरण, कायोत्सर्गभंग, कायोत्सर्ग-अकरण, वेगवन्दना, रात्रिव्युत्सर्ग, दिवसशयन, चिरकषाय, लशुन, तर्णादि-बन्धन, पुस्तक-पंचक, तृणपचक, दूष्यपंचक, स्थापनाकुल आदि सम्बन्धी दोष, दर्प, पंचेन्द्रिय-ब्यपरोपण, संक्लिष्टकम, दीर्घावकल्प, ग्लानकल्प, छेद, अश्रद्धान आदि अनेक पदों का आचार्य ने सम्यक् विवेचन किया है। सामान्य तथा विशेष आपत्ति की दृष्टि से तपःप्रायश्चित्त का क्या स्वरूप है, इसका विश्लेषण करने के बाद भाष्यकार ने तपोदान का विचार किया है । द्रव्य का क्या स्वरूप है और उस दृष्टि से तपादान की क्या स्थिति है, क्षेत्र के स्वरूप १. गा. १३१९-१३२०. २. गा० १३९५-१४६७. ३. गा० १४७६. ४. गा० १६०५-१६७०. ५. गा० १६८०-१७१९. ६. गा० १७२०-२४. ७. गा० १७२५-१७९४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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